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[ ९० ] की जाँच किये महज प्रन्यवाक्य होनेसे ही किसी बातको कैसे मान्य किया जा सकता है ? यदि योही मान्य किया जाय तो फिर सम्यक-मिथ्याका विवेक ही क्या रह सकता है ? और बिना उसके सम्यग्दृष्टि-मिथ्याष्टिका भंद भो कैसे बन सकता है ? अतः यह सब भट्टारकीय मायाजाल और उनको लोलाका दुष्परिणाम है ! और उसीने ऐसे बहुतसे झूठे तथा जालो ग्रंथों को जन्म दिया है, जिनमें अनेक त्रिवर्णाचार, श्रावकाचार, संहिताशास्त्र और चर्चासागर जैसे ग्रन्थ भी शामिल हैं। और जिनमेसे कितनों ही की परीक्षा होकर उनका स्पष्ट झूठ तथा मालीपन पबलिकके सामने आ चुका है।
___ यहां पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि अनुवादक महाशयने उक्त श्लोकका अर्थ देते हुए लिखा है कि-"सम्यग्दृष्टीका यही एक लक्षण है कि जिसको जिनेन्द्र के आगमका श्रद्धान है।" अर्थात् आपने 'यदुक्तं ग्रन्थकारक: वाक्यं तदेव मान्यं स्यात्' का अर्थ "जिसको श्री जिनेन्द्रके आगमका श्रद्धान है" ऐसा किया है ! और इस तरह प्रस्तुत प्रन्थकी स्पष्ट बात पर कुछ पर्दा डालने हुए हिन्दी पाठकोंको आंखों में धूल डालनेका यत्न किया है !! मूलमें 'श्री जिनेन्द्र देव' और उनके 'आगम' का नामोल्लेख तकभी नहीं है, बल्कि सामान्यरूपसे बहुवचनान्त 'ग्रन्थकारक' पदके साथ 'यदुक्त" पदका प्रयोग करके सभी प्रन्थकारोंके कथनका समावेश किया गया है । अतः यह सब भट्टारकीय शासनके अनुयायी और उसे प्रचार देनेके उत्कट इच्छुक अनुवादक महाशय (वर्त० क्षुल्लक शानसागरजी) की निरंकुशता है ! और उनकी ऐसी निरंकुशताओंसे यह सारा ग्रन्थ भरा पड़ा है !! ७ कुन्दकुन्दकी अनोखी श्रद्धाका उल्लेख!
श्रीकुन्दकुन्द मुनिराजकी विदेहक्षेत्र-यात्राका वर्णन करते