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[१४४] गणना देते हुए, श्लोक नं० ३६१ का अर्थ न देकर उसकी जगह निम्न वाक्य यो हो कल्पित करके दिया गया है :- "उन सबके साथ अपने २ नौकर चाकर सिपाई पयादे तथा सब प्रकारके साधन गाड़ी घोड़े आदि थे।"
(१५) पृष्ठ ११२, ११३ पर, श्लोक नं० ५०१ से ५०६ का अर्थ मूलके अनुकूल न होकर बहुत कुछ स्वेच्छाचारको लिये हुए है। इसमें मूलके नाम पर बहुतसी बाते अपनी तरफसे बढ़ाई गई हैं, जैसे-"पूजनके पाँच अंगोंमें तीन अङ्ग तो अभिषेकके प्रारम्भमें हो करने पड़ते हैं", "सबसे पीछे कलशाभिषेक करना चाहिये", "गंधलेपन पुष्पवृष्टि आदि", "यदि इस क्रमसे पूजाकी जाय तो सर्वसंपत्ति प्राप्त होतो है" इत्यादि !
(१६) पृष्ठ १४० पर श्लोक नं० ६४७ के अर्थमें 'अभिषेकादि' से पहले "तीर्थङ्कर द्वारा प्रतिपादित" और बादको “पवित्र आगमोक्त" ये 'क्रिया' के विशेषण बढ़ाये गये हैं !
(१७) पृष्ठ १६८ पर श्लोक नं० ९१ के अर्थमे निम्न दो बातें मूलके नाम पर खास तौरसे बढ़ाई गई हैं:
क-“भगवानकी मूर्तिको परोक्षपूजा प्रत्यक्षपूजासे भिन्न होती है। इसलिये परोक्षपूजा उस मूर्तिको" ( आगे पंचामृतके नामादिक देकर उनसे वह की जाती है ऐसा उल्लेख है।) . ख-"यह सनातनविधि श्रीजिनेन्द्रदेवने प्रतिपादन की है और इन्द्रादिकदेव इसी विधिसे नन्दीश्वरादि द्वीपमें अकृत्रिम जिनबिम्बोंका अभिषेक करते हैं।"
(१८) पृष्ट १७२ पर श्लोक नं० ११५ के अर्थमें निम्न बाते अपनी तरफ़से मिलाई गई हैं:
“धे मुनीश्वर कुमार्ग पर चलनेवालोंको सुमार्ग पर लाते थे। जिनराजकी आशा भंग करनेवालोंको सन्मार्ग पर लाते थे।