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लिये हुए है। उसमें जहां कुछ 'वेलकांत' आदि पदोंका अर्थ छोड़ा है वहाँ “मुनिधर्म के प्रकाश करनेवाले ग्रंथ भी बनाये" यह अर्थ अपनी तरफ़ से जोड़ा है और 'सकलान् प्रन्थान् करिष्यति' ( संपूर्ण प्रन्थोंको बनाएगा ) का विपरीत अर्थ "बहुतसे प्रन्थ बनाये" दिया है। इसी तरह 'प्रभावार्थ जिनधर्मस्य' इन शब्दों का अर्थ जो 'जिनधर्मको प्रभावना के लिये' होता है उसको जगह यह अर्थ दिया है
" जिससे जिनेन्द्रके धर्मकी अपूर्व महिमा प्रकट हुई । जैनधर्मकी प्रभावना हुई, तथा विद्वानों में जैनधर्मका चमत्कार हुआ और जगत्में जैनधर्मकी मान्यता बढ़ो ।”
(३०) जिस प्रकार उक्त पृष्ठ ८० पर भविष्यकालको क्रिया' करिष्यति' का अर्थ भूतकालमें दिया है उसी प्रकार पृष्ठ २४० पर भी 'भोक्ष्यति' ( भोगेगा ) क्रियापद का अर्थ " भोगने लगा" देदिया है, जो प्रकरणको देखते हुए बहुतही बेढंगा जान पड़ता है ! साथ में 'समापन्वान्' पद जो यहां 'सः' का विशेषण था उसे क्रियापद समझकर उसका अर्थ " प्राप्त किया" देदिया है ! और पृष्ठ १४२ पर 'भवन्ति' का अर्थ 'होते हैं' की जगह " होगे" दिया गया है ! इसी तरह अन्यत्र भी अनेक क्रिया पदों के अर्थ विपरीत किये गये हैं !!!
(३१) पृष्ठ १३५, पर एक श्लोक निम्न प्रकारसे दिया है :--
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तो मुनीपदस्यैव धारकाः पुरुषाः कलौ तुच्छा जानीहि त्वं भूप यथा भूपास्तथा प्रजा ॥
इसमें बतलाया गया है कि 'पूर्वोल्लेखित कारणोंसे--- अर्थात् प्रतिदिन मुनिमार्ग की दानिता, शरीरकी हीनता, हीन संहनन और ब्राह्मणों तथा राजाओंका जैनधर्म से पराङ्मुख