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और आलोचन अधिक विस्तारको अपेक्षा रखता है और इसलिये उन्हें छोड़ा गया है ।
लेख बहुत बढ़ गया है और इसलिये अब मैं आगे कुछ थोड़ोसो बातों की प्रायः सूचनाएँ हो और करदेना चाहता हूँ, जिससे पाठकों को इस ग्रन्थके अनुवाद विषयका और अनुवादककी चित्तवृत्ति एवं योग्यताका यथेष्ट व्यापक ज्ञान होजाय ।
( ११ ) पृष्ट ३७ पर श्लोक नं० १३५ के 'चूर्णोदकाज्यं" पदके अर्थ में 'आटा, पानी और घो' के बाद 'आदि' शब्द बढ़ाया है और उसके द्वारा मूलको अर्थमर्यादाको बढ़ाते हुए शूद्रोंके प्रति होनेवाले अन्यायको सोमावृद्धि को है ! इसीतरह पृष्ठ २१४ पर श्लोक नं० १६० के 'शूद्रस्पृश्यं जलं चूर्णं घृतं ' पदोंके अर्थ में 'शूद्रके हाथका जल घृत और आटा' के बाद 'आदि' शब्द बढ़ाकर वही अनर्थ घटित किया हैं * !!
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(१२) पृष्ठ ७२ पर श्लोक नं० ३०१ के अर्थ में 'तप' पद का अर्थ छोड़ दिया है और उसकी जगह " गुरु सेवा करना तथा " जैनधर्म के अन्तरंग : शत्रुओंका नाश करना" ये दो बातें पुण्य-कारणों में बढ़ाई गई हैं, जिनमेंसे पिछली बात का संकेत सुधारक के नाशकी ओर जान पड़ता है और उससे अनुवादक की एक ख़ास मनोवृत्तिका पता चलता है !!
(१३) पृष्ठ ७८ पर श्लोक नं० ३३८ के अर्थ में 'श्रीमज्जि'नेन्द्र बिम्बकी प्रतिष्ठा' से पहले 'अपरिमित धनादिक के व्यय के द्वारा" और बादको “महान् उत्सव कराने लगे" तथा "रथोत्सव आदि विविध प्रकारके उत्सव करने लगे" ये तीन बातें बढ़ाई गई हैं !
(१४) पृष्ठ ८५ पर, कुन्दकुन्दके गिरनार यात्रासंघकी
* ये दोनों श्लोक पहले 'शूद्रजलादिके त्यागका अजीब विधान' इस उपशीर्षकके नीचे उद्धृत किये जा चुके हैं।