Book Title: Suryapraksh Pariksha
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 159
________________ [१४१] सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रुतिस्मृतिषु भाषितः । विवाहविधिभेदेषु वरिष्ठोहि स्वयंवरः ॥ ३२॥ साथही, ४५वे पर्वमें राजा अकम्पनके स्वयंधर विधान का जो अभिनन्दन भरतचक्रवर्तीने किया था उसकाभी उल्लेख दिया है । भरतचक्रवर्तीने भोगभूमिको प्रवृत्ति द्वारा लुप्त हुए ऐसे सनातन मार्गों के पुनरुद्धारकर्ताओंको सत्पुरुषों द्वारा पूज्यभी ठहराया था; जैसा कि निम्न वाक्योंसे प्रकट है: "तथा स्वयंवरस्यमे नाभूवन्यद्यकम्पना। कः प्रवर्तयितान्योऽस्य मार्गस्यैष सनातनः ॥ ४५ ॥ "मार्गाश्चिरंतनान्येऽत्र भोगभूमितिरोहितान् । . कर्वन्ति नूतनान्सन्तः सद्भिः पूज्यास्त एव हि ॥ १५ ॥ इसके मिवाय, उक्त आदिपुराणके १६वै पर्व में यह भी बतलाया गया है कि विदेहक्षेत्रोंमें वर्णाश्रमादिककी जैसी कुछ व्यवस्था थी उसोकोयुगकी आदिमें भगवान आदिनाथने इस भरत क्षेत्र में प्रवर्तित करना उचित समझा था और तदनुसार ही वह सब व्यवस्था प्रवर्तित की गई थी * । ऐसी हालतमें स्वयंवर विधि जो युगको आदिमें यहाँ प्रवर्तित की गई वह विदेहक्षेत्रोंकी व्यवस्था के अनुसार ही की गई है और इसलिये विदेहोंमें स्वयंवरविधि से विवाहोंका होना स्पष्ट है। * पूर्वापर विदेहेषु या स्थिति: समुपस्थिता । साऽद्य प्रवर्तनीयाऽत्र ततो जीवन्त्यमू प्रजाः ॥१४३॥ पट कर्माणि यथा तत्र यथा वर्णाश्रमस्थितिः। यथा ग्रामगृहादीनां संस्त्याश्च पृथग्विधाः ॥१४॥ तथाऽत्राप्युचिता वृत्तिरुपायैरेभिरंगिनाम् । नोपायान्तरमस्त्येषा प्राणिनां जीविका प्रति ॥१४५॥

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