Book Title: Suryapraksh Pariksha
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 157
________________ [ १३९ ] 6 " तत्पिता यौवनाढ्यं च दृष्ट्वा सूनु गुणोज्वलं । गुणेन स्वात्मतुल्यं वा मुदमाप्स्यति भूमिराट् ॥१२७॥ तदात्मविवाहार्थ याचयित्वा नृपांगजाः । महत्कुलोद्धवाः शुद्धाः रूपात्तर्जित - अप्सराः ॥ २२८ ॥ ईदृशाः सुन्दराकारा: सुस्वना शं प्रदायते (१) । सूनवे यौवनाढ्याय नेत्रानन्दकराय वै ॥२२६॥ नेष्यन्ति वाद्यद्योपौघान् दानोत्करसुमंगलान् । कुर्वन् वै मंगलाप्त्यर्थ सज्जनानन्ददायकान् ॥२३०॥ - पृष्ठ २२२ इन श्लोकोमें न तो आगमको किसी मर्यादाका उल्लेख -आगम या शास्त्रका नाम तक भी नहीं- -न विवादको कोई ख़ास विधि हो स्पष्ट है और न यहो पाया जाता है कि विदेहों में स्वयंवर विधिका अथवा दूसरी किसी विवाहविधिका निषेध है। मालूम नहीं फिर अनुवादकजीने इन श्लोकोंके आधार पर कैसे उक्त नोट देने का साहस किया है ! इनसे भिन्न और कोई भी लोक विवाहविधिसे सम्बन्ध रखनेवाले इस प्रकरणमें नहीं है । जान पड़ता है इन श्लोकोंके अर्थ में जो जालसाज़ी की गई है उसीकी तरफ इस नोटका इशारा है अथवा उसीको लक्ष्य में रखकर यह नोट लिखा गया है ! अनुवादकजीका वह बेहद स्वेच्छाचारको लिये हुए छलपरिपूर्ण अर्थ इस प्रकार है:"अर्थ - उसका पिता बालकको यौवन अवस्था में देख कर अपनी जातिकी गुणवालो अपने समान ऋद्धिकी धारक राजाओं की कन्याओंकी याचनाकर विधिपूर्वक विवाह (वाग्दान ) स्वीकार करेगा । पश्चात् कुलास्राय और धर्मशास्त्र की विधि से विवाह करेगा । ( इसके बाद कुल डेढ़ पंक्तिमें पाँच श्लोकों --- -

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