Book Title: Suryapraksh Pariksha
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 158
________________ [१४०] का अर्थ दिया है और उनकी बहुतसी बातें शायद अप्रयोजनभूत समझकर छोड़ दी गई हैं !)।" इस अर्थमें "अपनी जातिकी गुणवाली अपने समान ऋद्धिकी धारक" और "विधिपूर्वक विवाह (वाम्दान) स्वीकार करेगा । पश्चात् कुलाम्नाय और धर्मशास्त्र की विधिसे विवाह करेगा" ये बातें मूलसे घारहको हैं-मूलके किसीभी शब्दका अर्थ नहीं हैं-अपनी तरफसे जोड़ी गई हैं। इन्हें निकाल देने पर इस अर्थ में फिर क्या रह जाता है और क्या छूट जाता है, उसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं !! खेद है कि अनुवादकजी इतनी धृष्टता धारण किये हुए है कि अपनी बातोंको भी ग्रंथकी बातें बतलाकर लोगोंको ठगना और उनकी आंखोमें स्पष्ट धूल डालना चाहते हैं ! इस निर्लज्जता और बेहयाईका भी कुछ ठिकाना है !!! मालूम नहीं भट्टारकोय साहित्यके त्रिवर्णाचारादि आधुनिक भ्रष्ट ग्रंथोंको छोड़कर भाप कौनसे आगम ग्रंथ को मर्यादाको दुहाई दे रहे हैं, जिसमें राजाओं (क्षत्रियों) के लिये एक मात्र अपनी हो जातिको कन्यासे विवाह करनेको व्यवस्था की गई हो और स्वयंवर विधिस विवाहका सर्वथा निषेध किया गया हो ? भगवजिनसेनाचार्यने तो आदिपुराणके १६ वे पर्व 'शूद्रा शूद्रेण वोढव्य' इत्यादि श्लोकके द्वारा अनुलोमक्रमसे विवाह की व्यवस्था को है-अर्थात् एक वर्ण (जाति) घाला अपने और अपनेसे नीचेके वर्ण (जाति) की कन्यासे विवाह कर सकता है और इसे युगकी आदिमें श्री आदिनाथ भगवान द्वारा प्रतिपादित बतलाया है । और ४४ पर्व में स्वयंवर विधिसे विवाह को 'सनातनमार्ग' लिखा है तथा संपूर्ण विवाहविधानों में सबसे अधिक श्रेष्ठ (वरिष्ठ) विधान प्रकट किया है। जैसा कि उसके निम्न श्लोकसे प्रकट है:

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