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[१३८] "इस प्रकरण में विवाहविधि विदेहक्षेत्रमें भी आगमकी मर्यादासे बतलाई है। यह नहीं है कि कन्या स्वयं वरण करे या बालक अपने आपही अपनी इच्छानुसार जिस तिस (जाति कुजाति, योग्य अयोग्य, नीच ऊँच आदि सबको) को स्वीकार कर विवाह कर लेवे । ऐसा करना मर्यादाके बाहर है। विवाह धर्मका अङ्ग है, उसकी पूर्ति गुरुजन ही योग्य रीति से सम्पादन करते हैं । इसमें बालक बालिकाओं को स्वतन्त्रता
यह नोट 'वह' शब्दसे अथवा उससे प्रारम्भ होनेवाले उक्त वाक्यसे कोई सम्बन्ध नहीं रखता, यह तो स्पष्ट है । परंतु इसे छोड़िये और इस नोट के विषय पर विचार कीजिये । इस में स्वयंवर विवाहका निषेध किया गया है और उसके लिये 'आगमकी मर्यादा' तथा इस प्रकरणमें वर्णित 'विदेहक्षेत्रकी विवाहविधि' की दुहाई दी गई है। परन्तु इस प्रकरणमें विदेह क्षेत्रमें होनेवाले विवाहोंको कोई खास विधियाँ निर्दिष्ट नहीं की गई और न यही कहा गया कि वहाँ अमुक एक विधिसे ही सारे विवाह होते हैं, बल्कि भविष्य कथन के रूप में कर्मदहनवत के फलको प्राप्त एक राजकुमारके विवाहका साधारणतौर पर उल्लेख करते हुए केवल इतना ही कहा गया है कि-'उस राजकुमारका पिता पुत्रको गुणोंसे उज्वल अथवा अपने ही समान गुणवाला और यौवनसम्पन्न देखकर प्रसन्न होगा । उस पुत्रके विवाहार्य बड़े कुलोको ऐसी सुशीला राजपुत्रियोंकी याचना करेगा जो रूपमें अप्सराओंको मात करनेवाली होगी। ऐसी सुन्दराकार और मनोहर स्वरवाली कन्याएँ उस नेत्रानन्दकारी और यौवनसम्पन्न पुत्रको, सज्जनोंको आनन्द देने घाले दानों तथा सुमङ्गलोंको मंगल प्राप्तिके लिये करते हुए, बाजे गाजेके साथ विवाही जायंगी। यथा: