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सुधार पर फिर यह स्वार्थसिद्धि, निरंकुशता और गणधरी भो कैसे सकती है, जिसकी आपको विशेष चिन्ता जान पड़ती है ?
यहां पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि अनुवादकजीने विजातीय विवाह जैसे युक्ति-शास्त्र सम्मत कार्यको भी 'धर्मविरुद्ध' तथा 'धर्मको पवित्रताको नष्ट करने वाला ' बतलाकर अपने उन पूर्वजों तथा पूज्य पुरुषोंको भी, जिनमें तीर्थङ्कर तक शामिल हैं, अधार्मिक और धर्मकी पवित्रता को नष्ट करनेवाले ठहराया है, जिन्होंने अपने वर्ण अथवा जाति से भिन्न दूसरे वर्ण जातियोंको कन्याओं से विवाद किये थे तथा म्लेच्छ जातियों तक की कन्याएँ विवाही थीं और जिन सबकी कथाओं से जैनमंथ भरे पड़े हैं ! और यह आपकी feart बड़ी धृष्टता है !! विजातीयविवाहको चर्चा बहुत अर्से तक समाज के पत्रों में होती रही है और उसे कोई भी विद्वान् अशास्त्रसम्मत सिद्ध नहीं कर सका । अन्त में विरोधियोंको चुप ही होना पड़ा और उसके फल स्वरूप अनेक विजातीय विवाह डंके की चोट हो रहे हैं। ऐसी हालत में भी अपने कदाग्रहको न छोड़ना और वही बेसुरा राग अलापते हुए उसके विरोधको चुपके से प्रन्थोंमें रखकर और उसे जिनवाणी तथा भगवान महावीरकी आज्ञा कहकर चलाना कितनो भारी नीचता और धृष्टता है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं !! एक दूसरे स्थान पर तो छठे पृष्ठके फुटनोट में - आपने ऐसे विवाह करने वालोको - और इसलिये अपने पूर्वजों तथा पूज्यपुरुषों को भी'अनार्य' (म्लेच्छ) बतलाया है !! इस धृष्टताकाभी कोई ठिकाना है !!!
(१०) पृष्ठ २२३ पर " वह राजकुमार राजा हो कर प्रजाका न्यायमार्ग से पालन करेगा" यह वाक्य दिया हुआ है । और इसके 'वह' शब्द पर अंक १ डाल कर नीचे एक फुटनोट लगाया गया है, जो इस प्रकार है:
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