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[१३६] तरहकी एक बात उन्होंने पृष्ठ १३५ के फुटनोटमें भी जोड़ी है-लिखा है कि "कालदोषसे अपने धर्मभाई ही मुनियोंकी निन्दा कर मुनिधर्मके उठानेका प्रयत्न करेगे । मुनियों में मिथ्या अवर्णवाद लगावेगे।" मानो मुनिलोग बिलकुल निर्दोष होंगे;
और यह सब कालका ही दोष होगा जो लोग यों ही उनकी निन्दा करने लगेंगे तथा उनमें दोष लगाने लगेंगे ! वाह ! कैसी अच्छी वकालत है ! इससे भी अधिक बढ़िया वकालत पृष्ठ ४१ को 'टोप' में की गई है और वह इस प्रकार है
__ "वीतराग सर्वथा निरपेक्ष परम पवित्र सर्व प्रकारके दोषसे रहित और सब प्रकारको आशाको छोड़कर शानध्यानमें लीन रहनेवाले धर्मगुरु ( मुनि-आचार्य-ऐल्लक-आर्यिका ) को ये व्रत और चारित्रविहीन श्रावक निन्दा करेंगे। तथा निर्लज्जताके साथ निन्दा करते हैं । ये लोग स्वयं पापी, सदावाररहित कुशिक्षासे विषयोंका पोषण करने वाले और क्रिया हीन पापिष्ठ होंगे, सच्चे धर्मात्मा और धर्मगुरुका चारित्रविचार एवं मनको भावना अत्यन्त पवित्र और उत्तम होगी उसको भी ये लोग सहन नहीं कर सकेंगे।' इत्यादि
इस प्रकारके अनुचित पक्षसे तो यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि आप मुनियोंका सुधार और उनका उत्थान बिलकुल नहीं चाहते । यही वजह है कि आप क्षुल्लक महाराज जिस शांतिसागर संघके मुख्य गणधर बने हुए हैं उसकी दिनों दिन भइ उड़ रही है, जगह जगह निन्दा होती है और यह प्रसिद्ध हो चली है कि जहाँ जहाँ यह संघ जाता है, वहां वहां कलह के बीज बोता है और अनेक प्रकारके झगड़े टंटे कराकर लोगोंकी शांति भंग करता है ! (शायद टीपमें वर्णित गुणोंका हो यह सब प्रताप हो!!) परन्तु इससे आपको क्या ? आपका उल्लू तो बराबर सीधा हो रहा है ! मुनियों के