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हैं | परन्तु जैनधर्मका पक्ष मुनियोंके सदुपदेश के बिना समस्त जीवोंको मिलना कठिन है । इसलिये इस जैनधर्मके पालन करने बालोंकी संख्या कम हो गई है। इसलिये मुनिधर्म और सच्चे आगमके जानकार विद्वानोंकी पक्षको एकदम मज़बूत बना देना चाहिये जिससे धर्मकी विपरीतता नष्ट हो जाय ॥ ६४० ॥ "
यह सब अर्थ (अनुवाद) मूलसे कितना बाह्य और विपरीत है उसे बतलाने की ज़रूरत नहीं ! सहृदय पाठक सहज ही में तुलना करके उसे जान सकते हैं। ऐसे अनुवादको अनु वाद नहीं कहा जासकता- ये तो पूर्वोल्लेखित अनुवादोंकी तरह अनुवादकजीकी निरंकुशताके जीते जागते उदाहरण हैं ! यहां पर मैं अपने पाठकों को सिर्फ इतना हो बतला देना चाहता हूं कि अनुवादकजोने जैनियों अथवा पाक्षिक श्रावकों को संख्यावृद्धि की बातको गौण करके तथा राजा प्रजा और द्विजों को जैनी बनानेकी बातको भुलाकर इन श्लोकोंके अर्थक बहाने धर्मगुरुओं (भट्टारकमुनियों) की आशाको शिरोधार्य करने, उनकी तथा उनके आश्रित अपने जैसे स्यागी विद्वानों की पक्ष में रहने और उस पक्षको मज़बूत बना देनेकी प्रेरणारूप जो यह अप्रासंगिक तान छेड़ी है और सुधारकोंपर बिना बात ही व्यर्थका आक्रमण किया है वह सब भट्टारकीय मार्गको निष्कंटक बनानेकी उनकी एक मात्र धुन और चिन्ताके सिवाय और कुछ भी नहीं है- वे लुप्तप्राय भट्टारकीय मार्गको पुनः प्रतिष्ठित कराकर उसे चलाना चाहते हैं ! इसीसे वे शान्तिसागर जैसे मुनियोंके पीछे लगे हैं, उन्हें पक्ष पक्षों की दलदल तथा सामाजिक रागद्वेषको कोचमें फंसा रहे हैं और उनके सहयोग से इस 'सूर्यप्रकाश' जैसे भट्टारकीय साहित्यके प्रन्थों का प्रचार कर रहे हैं !! फिर बेप्रसंग- बिना प्रसंग ( मौके मी ) - ऐसी बेहयाईकी बातें न करें तो क्या करें ?