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[१३३] थी। उन सब राजा, प्रजा और द्विजों का जैन न रहना ही इस धर्मकी न्यूनताका कारण है।
__इस सीधे सादे स्पष्ट अर्थके विरुद्ध अनुवादकजीने जो अर्थ दिया है वह इसप्रकार है :' "अर्थ-हे राजन् , कलिकालमें इस संसारमें जिसके पक्षमें बहुतसी संख्या है वह अपना बल प्रकट करेगा, उसका महत्व प्रकट होगा । और जिनके पक्षमें संख्या स्वल्प है धे सर्वांग शक्तिशाली होनेपर भी अपना महत्व प्रकट नहीं कर सकेंगे । अपना जैनधर्म यद्यपि संसारमै सर्वोत्कृष्ट है, सर्वोत्तम है, पवित्र है, सदाचारसे परिपूर्ण है, परन्तु राजाओंका पक्ष न रहनेसे कमज़ोर होगया है। इसी प्रकार मुनिवर्गका पक्ष जब से कम होने लगा है तबसे उसका महत्व छुपता जाता है । इसलिये जो लोग धर्मका महत्व प्रकट करना चाहते हैं उनको धर्मगुरुओंको आज्ञा शिरोधार्य कर धर्मके रहस्य जाननेवाले सच्चे विद्वान त्यागियोंकी पक्षमें रहकर अपने धर्मको रक्षा और वृद्धि करनी चाहिये । जो सुधारक मुनिगण और विद्वानोंकी सत्य और आगमोचित पक्षको छोड़कर धर्म के बहाने अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं और धर्मकी पवित्रता, विधवाविवाह, जाति-पांति लोप और विजातीयविवाह आदि धर्मविरुव कारणोंसे नष्ट करना चाहते हैं उनको विचार करना चाहिये कि इस प्रकार पक्षभेद करदेनेसे धर्मका सत्यानाश ही होगा, समुन्नति नहीं। ६३८॥"
"-"चतुर्थकालमें इस जैनधर्मके प्रतिपालक राजा और ब्राह्मणादि सभी प्राणी थे। इसलिये इसका डंका सर्वत्र अविच्छिन्नरूपसे बजता था ॥६३९ ॥" । ___ -यह धर्म सर्वोत्कृष्ट है । त्रिलोक पूजित है। और सर्वमान्य है। और धर्म इस (जैनधर्म) से सब बातों में अधम