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[१३२] मूल्य भले प्रकार समझ सकते हैं और उनकी लोलाको अच्छी तरह पहचान सकते हैं । इस विषयके विशेष अनुभवके लिये उन्हें 'ग्रंथपरोक्षा' के तीनों भाग और 'जैनाचार्योंका शासन भेद' नामको पुस्तकको भी देख जाना चाहिये * | फिर उनके सामने अनुवादकजी जैसोका ऐसा मायाकोट क्षणभर भी खड़ा नहीं रह सकेगा।
(९) पृष्ठ १३७, १३८ पर जैनधर्मका महत्व गिर जाने और उसकी न्यूनताका कारण बतलाते हुए तीन श्लोक निम्न प्रकारसे दिये हैं:
"हस्त्यनन्तश्च संसारे पक्षः स्यात् यस्य दृश्यते । महत्वत्वं च तस्यैव तद्ऋते अमहत्वता ॥६३८॥ "मित्रकाले च तस्यैव पालका धारका नृपाः । प्रजाःसर्वा द्विजा:सर्वेश्रत: सर्वेषु भो बुधाः ॥६३६॥ "उत्तमता च यस्यैव अन्यस्य न्यूनता खलु । तद् ऋते ननु विज्ञेयं विपरीतस्य कारणम् ॥६४०॥
इनमें सिर्फ इतनाही कहा गया है कि-'संसारमें जिस धर्मका पक्ष अनन्त है-बहुत अधिक जनता जिसके पक्ष में होती है-उसीका महत्व दिखलाई पड़ता है। प्रत्युत इसकेअधिक जनता पक्ष में न होनेपर--महत्व गिर जाताहै । चतुर्थ कालमें इसी जैनधर्मके पालक-धारक-राजा थे, सारी प्रजा थी और सारे द्विज (घ्रामण, क्षत्रिय, वैश्य ) थे । इसीलिये हे बुध जनों ! सब धर्मों में इसोको उत्तमता थी--दूसरोंकी न्यूनता
* लेखकको लिखी हुई सब पुस्तकें “जैनमन्थरत्नाकर कार्यालय होराबाग, पो. गिरगाँव, बम्बई" से मिलती हैं ।