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[१३१] राग योगियोंने उस दिव्यध्वनिमें व्यतिक्रम किया है। इसलिए परमागमके शास्त्र सब दिव्यध्वनि कप ही हैं। जो प्रामाणिकता. सत्यता और निर्दोषता दिन्यध्वनिकी है वही प्रामाणिकता सत्यता-निर्दोषता और अबाधता ग्रंथोंको है।"
इस अर्थ में पहला वाक्य तो मूल के अधिकांश आशयको लिये हुए है, बाकी 'परन्तु' से प्रारम्भ होकर अन्त तकका सारा अर्थ मूलके साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं रखता-यह सब अनुवादकजीके द्वारा कल्पित किया और बढ़ाया गया है ! इस बढ़े हुए अंशके द्वारा भी अनुवादकजीने भोले भक्तोंको फंसाने के लिये वही मायाजाल रचा है जिसका उल्लेख पिछले नम्बर (७) में किया जाचुका है। आप इसके द्वारा भोले भाइयोंको जिनागम परमागमके भुलावे में डालकर और अन्तको जैन कहे जानेवाले लय प्रन्योको एक आसनपर बिठलाकर उनके हृदयों पर यह सिक्का जमाना चाहते हैं कि भट्टारकीय साहित्यके इन त्रिवर्णाचारों तथा सूर्यप्रकाश जैसे प्रन्थोंमें भी जो कुछ लिखा हुआ है वह सब भगवानकी दिव्यध्वनिमें ही प्रकट हुआ है-एक अक्षरभी उससे बाहरका नहीं है, और इसलिए इन प्रन्योको सब बातोंको मानना चाहिए । पाठकजन ! देखा, अनुवादकजोका यह कितना असत्साहस, खोटा अभिप्राय तथा छलपूर्ण व्यवहार है और इसके द्वारा वे कैसी ठमविद्या चलाना चाहते हैं ! इस ग्रंथमें, जिसे खुद अनुवादकजीने "प्रथराज" (पृष्ठ ४०३) तथा "जिनागमस्वरूप" (४०८) लिखा है और ऐसी जिनवाणी प्रकट किया है जो भगवान् महावीरके समयसे अबतक "वैसी ही अविच्छिन्न धाराप्रवाह रूप चली आई है" (४०३), भगवान महावीर और उनको वाणीकी कैसी मिट्टी खराबकी गई है, यह बात अब पाठकोले छिपी नहीं रही और इसलिये वे अनुवादकजीके उक्त शब्दोंका