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[१३५] खेद है कि अपनी धुनमें अनुवादकजी यह तो लिख गये कि “मुनिधर्मका पक्ष जबसे कम होने लगा तबसे उसका महत्व छुपता जाता है परन्तु उन्हें यह समझ नहीं पड़ा कि मुनियों का पक्ष कम क्यों होने लगा! क्या मुनियोंका पक्ष कम होने और उनका महत्व गिर जानेका उत्तरदायित्व भी गृहस्थों के ऊपर है ?~-मुनियों के ऊपर नहीं कदापि नहीं। मुनियों में शिथिलाचार आजाने और उनका आचरण मुनियोंके योग्य न रहनेके कारण हो उनका पक्ष एवं महत्व गिय है । "निजैरेव गुणैलोके पुरुषो याति पूज्यताम्" को नोतिके अनुसार हरएक मनुष्य अपने गुणों के कारण ही लोकमें पूजा-प्रतिष्ठाको प्राप्त होता है और जनताको अपने पक्ष में कर लेता है। एक महात्मा गांधीने अपने महान् गुणों के कारण हो संसारको हिला दिया
और असंख्य जनता को अपने पक्षमें कर लिया। इससे स्पष्ट है कि मुनियोंके पक्षका गिरना और उनके महत्वका लुप्त हो जाना खुद उन्होंको त्रुटियों तथा दोषों पर अवलम्बित है। ऐसी हालतमें अनुवादकजीका, मुनियों को अपनी त्रुटियों तथा दोषों को सुधारनेका उपदेश न देकर गृहस्थोंको ही उनको आशाको शिरोधारण करने और उनको पक्षको मजबूत बनानेका उपदेश देना कहाँ का न्याय है ! सिंहवृत्तिके धारक और स्वावलम्बी कहे जानेवाले मुनि तो अकर्मण्य बने रहें और गृहस्थ लोग उनके पक्षको मजबूत करते फिरें, यह कैसी विड. म्बना जान पड़ती है ! ऐसो विडम्बनाका एक नमूना यह भी देखने में आता है कि मुनिलोग गृहस्थोंसे 'आचार्यपद' लेने लगे हैं !! जान पड़ता है, अनुवादकजीको मुनियोंका सुधार इष्ट नहीं है, क्योंकि वे शिथिलाचारको पुष्ट करनेवाली भट्टारकी चलाना चाहते हैं और इसीलिये उन्होंने मुनियोंको उनकी त्रुटियों तथा दोषोंके सुधार का उपदेश नहीं दिया !! इसी