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आदि पुराणसे पहिले शक संवत् ७०५ में बने हुए श्री जिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराणमें भी स्वयंवरविवाहका तथा अन्य जातियोंकी कन्याओंसे अनुलोम प्रतिलोम रूप से विवाहों का बहुत कुछ उल्लेख है । और उसमें रोहिणीके स्वयंवरके प्रसंग पर निम्नवाक्य द्वारा स्वयंवरको नीतिका भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है— अर्थात् बतलाया है कि 'स्वयंवरको प्राप्त हुई कन्या उस वरको धारण करती - स्वीकार करती है जो उसे पसन्द होता है, चाहे वह वर कुलोन हो या अकुलीन; क्योंकि स्वयंवर में वरके कुलीन या अकुलोन होने का कोई नियम नहीं होता'
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स्वयंवरगता कन्या वृणीते रुचितं वरं ।
कुलीनमकुलीन वा न क्रमोऽस्ति स्वयंवरे ॥ ३१-५३ ॥
उक्त हरिवंशपुराण से भी कोई एक शताब्दी पहले के बने हुए रविषेणाचार्य के पद्मचरित ( पद्मपुराण) में भी सीता के स्वयंवरका घर्णन है । इन सब प्रन्थोंसे अधिक प्राचीन और अधिक मान्य ऐसा कोई भी जैन प्रन्थ नहीं है जिसमें स्वयंवरादिका निषेध किया गया हो ।
अतः अनुवादकजीका उक्त नोट बिलकुल निःसार छल से परिपूर्ण, दुःसाहसको लिये हुए और उनकी एकमात्र दूषित चित्तवृत्तिका द्योतक है। इसी तरह के अनेक निःसार नोट ग्रंथ मैं भिन्न भिन्न स्थानोंपर लगाये गये हैं, जिन सबका परिचय
+ इस ग्रंथ तथा अन्य ग्रन्थों सम्बन्धी विवाहविधियोंका विशेष परिचय पानेके लिये लेखककी 'विवाहक्षेत्र प्रकाश' नामकी पुस्तकको देखना चाहिये । यह पुस्तक ला० जौहरीमलजी जैन सर्राफ, दरीबाकला, देहली के पाससे मिलती है ।