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[१३०] बात कुछ अर्थका अनर्थ कियाहै और कितनीही झूठी तथा निम्सार बातें अपनी तरफसे मिलाई है, जैसाकि अब तककी और आगेकी भी आलोचनाओंसे प्रकट है। फिर वे इस बात को कैसे पसन्द कर सकते हैं कि कोई इस प्रस्थको समालोचना करे और उनके दोषोको दिखलाए । इन सब बातोंको लेकर ही बेसमालोचनाके विरोधी बने हुए हैं ! अपने उन वर्तमान गुरुओंकी मानमर्यादाका भी उन्हें खयाल है जिन्हें वे अपनी स्वार्थ-सिद्धिका साधन बनाये हुए हैं-उनकी समालोचनाको भी वे नहीं चाहते । इसीलिये प्रन्थोंको समालोचनाके प्रसंग पर गुरुओंको समालोचनाको भी उन्होंने साथ जोड़ दिया है। चूंकि इन दोनोंकी समालोचनाका भय उन्हें सुधारकोंकी तरफ से ही है, इसीसे वे सुधारकों के विरुद्ध उधार खाये बैठे हैं और उन्होंने सुधारकोंको "ढोंगी, जिनधर्मको श्रद्धासे रहित" आदि कहकर उनके विरुद्ध कितनीहो बेतुकी बातें लिख डाली हैं ! अन्यथा, उनके इस लिखने में कुछभी सार नहींहै। और उनका यह सारा नोट बिलकुल नासमझो, अविचार, द्वेषभाव और अनुचित पक्षपातको लिये हुए है।
(८) पृष्ठ १७१ पर एक श्लोक निम्न अर्थ के साथ दिया है :दिव्यध्वनिमयो वाणी वीतरागमुखोद्भवा । साप्यस्मिन्नास्ति भो भन्याः सर्वद्वापरखंडका ॥ १०९ ॥
"अर्थ-साक्षात् तीर्थङ्कर केवलोका अभाव होनेसे साक्षात् दिव्यध्वनिका भी अभाव है जिससे सर्व सन्देह दूर होता था। परन्तु पंचमकालमें जिनागम प्रन्यों में वह दिव्यध्वनि आचार्योंकी परम्परासे प्रथितकी है। जिनागम ग्रंथों में केवली भगवानको दिव्यध्वनिके सिवाय एक अक्षरमात्रभी स्वकल्पित नहीं है। न राग द्वष या प्रतिष्ठा कोर्ति आदिके गौरवसे वीत