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[ १२८] और इसतरह उन ग्रन्थों के लोपका प्रयत्न किया है, तब क्या अनुवादकजी इस प्रन्यलोपज पापके कारण ग्रंथकारको और खुद अपनेको भी नरक निगोद भेजनेके लिए तैयार हैं । यदि नहीं, तो फिर इस व्यर्थफे शब्दजालसे क्या नतीजा है ?
__ क्या असत्य-ग्रंथोंको असत्य ठहराने में भी कोई पाप है ? झूठे, जाली, मिथ्यात्वरित एवं धूतों के रचे हुए विषमिश्रित भोजनके समान धर्मप्राणोंका हरण करनेवाले इन त्रिवर्णाचारादि जैसे अहितकारी ग्रंथोंका तो जितना भी शीघ्र लोप हो जाय उतना ही अच्छा है । जैनसाहित्यके कलंकरूप ऐसे ग्रंथों का वास्तविक स्वरूप प्रकट करके उनके लोपमें जो कोई भी मदद करता है वह तो जैनशासनकी, जैनागमकी, जैनाचार्यों को अथवा यो कहिये कि सत्यार्थ आप्त-आगम-गुरुओं की सच्ची सेवा करता है । सत्यके लिए आलोचना और परोक्षा को कोई चिन्ता नहीं होती। जिसके पास शुद्ध और खालिस सुवर्ण है वह इस बातसे कभी नहीं घबराता कि उसके सुवर्णको कोई घिसकर, छेदकर अथवा तपाकर देखता है । प्रत्युत इसके, जिसके पास खोटा माल है अथवा जालो सिक्का है वह सदा उसके विषय में सशंकित रहता है और कभी उसे खुली परीक्षाके लिए देना नहीं चाहता। यही वजह है जो प्राचीन एवं महान् आचार्योंने कमी परोक्षाका विरोध नहीं किया, बे बराबर डंकेकी चोट यही कहते रहे कि खूब अच्छी तरहसे परीक्षा करके धर्मको ग्रहण कये, अन्धश्रद्धालु मत बनो; क्योंकि उन्हें अपने धर्मसिद्धान्तों की असलियत पषं सत्यता पर पूरा विश्वास था और वे समझते थे कि जो बात परीक्षापूर्वक प्रहण की जाती है उसमें दृढ़ता एवं स्थिरता आती है और उसके द्वारा विशेषरूपसे कल्याण सघ सकता है।