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[१२७ ] कि 'भ्रष्टचारित्र पंडितों और वठरसाधुआने (धूर्त मुनियोंने) निर्मल जैनशासनको मलिन कर दिया है' * तो फिर जिज्ञासु सत्पुरुषों के लिये परीक्षाके सिवाय और दूसरा चारा (उपाय) हो क्या हो सकता है ? अथवा क्या ऐसी नकली मुहर भी सर्वशकी मुहर होती है जैसो कि इस सूर्यप्रकाश पर लगाई गई है ? और सर्पशने कहा हो कब है कि मेरे वचनोंको जांच अथवा परोक्षा न की जाय ? सर्पोंका शासन कोई अन्धश्रया का शासन नहीं होता। उसमें तो परोक्षकोंके लिये खुला चैलेञ्ज रहता है कि वे आएं और परीक्षा करें। इसमें उनका और उनके शासनका महत्व है । समन्तभद्र जैसे महान आचायौं ने तो खुद सवज्ञको भी परीक्षा की है, फिर उनके नाम की मुहर लगे प्रन्थोंकी तो बात हो क्या है ? परीक्षा और समालोचनाका मार्ग सनातनसे चला आया है। जिस समय दिगम्बर
और श्वेताम्बर संघभेद हुआ था उस समय दिगम्बर महर्षियोंने श्वेताम्बराचार्यों द्वारा संकलित आगम ग्रन्थोंको अप्रामाणिक
और अमान्य ठहराया था। इस अप्रामाणिकता और अमान्यता के द्वारा उन्होंने जो आगम ग्रंथोंके लोपका प्रयत्न किया तो क्या इससे वे महर्षिगण नरक निगोदके पात्र होगये ? और उन ग्रंथोंको अमान्य करार देनेवाला सारा दिगम्बरसमाज भी क्या नरकनिगोदमें पड़ेगा? इसपर भी अनुवादक जीने कुछ विचार किया है या योंही अनाप सनाप लिख गये? इसके सिवाय. इसो प्रथमें तेरहपन्योप्रन्थों के विरुद्ध कितनाहो जहर उगला गया है-उनमें जो पञ्चामृत अभिषेक आदिका निषेध किया गया है, उसको असभ्यतापूर्ण कड़ी आलोचना की गई है
* पंडितैघ्रष्टचारित्र: वठरैश्चतपोधनः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥