Book Title: Suryapraksh Pariksha
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 143
________________ [ १२५ ] को दृष्टिमें आचार्य महाराज शीलवती भी नहीं ठहर सकते !! पूर्णब्रह्मचारी होने को तो बात ही दूर है !!! वाह ! शिष्यको यह कैसी विचित्र लोला है जिस पर आचार्य महाराज मुग्ध हैं !!! (७) तेरहपंथियों से झड़पके समय भगवानके मुखले एक वाक्य निम्न प्रकार कहलाया गया है, जिसमें लिखा है कि- 'हे मगधेश्वर ! प्रन्थोंका लोप करनेके पाप से वे सब श्रावक निश्चय हो नरकमे जायेंगे : -- ग्रन्थलोपजपापेन ते च श्राद्धानिकाः खलु । नरकावनौ च यास्यन्ति सर्वे हि मगधेश्वर ॥ ६८३॥ इस वाक्यके द्वारा शुद्धाम्नायके संरक्षकों एवं तेरहपन्थ के प्रसिद्ध विद्वान पं० टोडरमलजी आदिके विरुद्ध ( जिन्होंने भट्टारकीय साहित्य के कुछ दूषित प्रन्थोंको अप्रमाण ठहराया था ) नरकका फ़तवा निकाल कर अथवा उन प्रन्थोंको न मानने वाले सभी तरहपन्थियोंके नाम नरकका नर्मान जारी करके ग्रन्थकारने अपने संतप्त हृदयका बुख़ार निकाला था । अन्यथा, किसी प्रथको सदोष जानकर उसके मानने से इन्कार करनेमें नरकका क्या सम्बन्ध १ नरकायुकं आस्रवका कारण तो बहुआरम्भ और बहुपरिग्रहको बतलाया गया है । परन्तु अनुवादकजोको उन्हें केवल नरक भेजना कालो मालूम नहीं दिया और इसलिये उन्होंने अर्थ देते हुए उसके साथमें उनके निगोद जानेको बात और जोड़ दो है ! और फिर इतने परसे भी तृप्त न होकर इसपर जो मग़ज़ी बढ़ाई है - इसके 'प्रन्थलोपजपापेन' पद पर जो नोट रूप गोट लगाई है - वह इस प्रकार है: "प्रन्थोंको असत्य ठहराना मानो है । इसके समान संसार में अन्य पाप ग्रंथोंका लोप करना नहीं है । आगमको

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