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[१२३ ] कोई भी बात मूलके शब्दोंस सम्बन्ध नहीं रखतो !!! और इस लिये इसे अनुवादकजोंके विचित्र अथवा विकत मस्तिष्ककी हो एक उपज कहना चाहिये ! उन्हें इतनो भी समझ नहीं पड़ी कि लोग मेरे इस साक्षात् झूठ पर कितना हंसगे और मेरे इस ब्रह्मचारी वेष तथा सत्यवतका कितना मखौल उड़ाएंगे! क्या मस्तिष्कविकारके कारण उन्होंने यह समझ लिया था कि मेरे इस अनुवादको कोई संस्कृत जानने वाला पढ़ेगा ही नहीं ? परन्तु संस्कृत जानने वालको छोड़िये, साधारण हिन्दी जानने वाला भी यदि मूलके साथ इस अर्थको पढ़े तो वह इतना तो समझ सकता है कि मूलमें पुनर्विवाह, शूद्र, शोलवत और व्यभिचार जैसी बातोंका कोई उल्लेख नहीं हैउनका नाम, निशान और पता तक भी नहीं है । धन्य है आप के इस अद्भुत साहसको! 'चे मर्दाना अस्त दुज़दे कि बकन चिराग़ दारद * !!'
___इस अर्थ तथा पिछले नम्बरमें दिये हुए अर्थ परसे शूद्रों के प्रति अनुवादकजीकी चित्तवृत्तिका अच्छा खासा परिचय मिल जाता है और यह मालूम हो जाता है कि वे किस तरह को खींचातानी करके और कपटजाल रचकर अपने विचारोंको जनताके ऊपर लादना चाहते हैं । परन्तु जो लोग जैन शास्त्रों का थोड़ासा भो बोध रखते हैं वे ग्लेच्छ और शूद्रके भेदको खूब समझते हैं, शूद्रको आर्य जानते हैं-म्लेच्छोत्पन्न नहींऔर दोनोंको हो श्रावककं बारह व्रतोंके पालनका अधिकारी मानते हैं । उनके गले यह बात नहीं उतर सकतो कि शूद्र बारह व्रतोंका पालन करता हुआ भो शोलवतका पालन नहीं कर सकता-वह तो उन्हीं व्रतोंमें एक व्रत है । और न यही गले उतर सकती है कि व्यभिचार करने वाला कमी शीलवती
* क्या ही मर्दाना चोर है कि हाथमें चिराग़ लिये हुए है !!