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[१२१] जैनी बारह व्रतोंका उत्तम रीतिसे पालन करता हुआ तथा क्षुल्लकके पद पर विराजमान होता हुआ भो 'अपने शरीरको स्थितिपयंत' नोच ही रहेगा---ऊंच नहीं हो सकेगा !! धन्य है आपके इस ऊंच-नीचके सिद्धान्तको !!! जैनाचार्योने तो
"चातुर्वण्र्य तथान्यच्च चाण्डालादिविशेषणं । सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धं भुवने गतम् ॥ "अनार्यमाचरन् किचिज्जायते नीचगोचरः।
-पनचरिते, रविषेणः । "प्राचारमात्रभेदेन जातीनां भदकल्पनम् । न जातिब्राह्मणीयास्ति नियता कापि तात्विकी ॥ "गुणः सम्पद्यते जातिगुणध्वंसर्विपद्यते ।
-धर्मपरीक्षायां, अमितगतिः । "वृत्तिभेदा हि तभेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते।।
-आदिपुराणे, जिनसेनः। इत्यादि वाक्योंके द्वारा आचारभेद,गुणभेद अथवा वृत्ति (धंधा) भेदके कारण जातिभेदको कल्पित माना है और नीच उसे बतलाया है जिसका आचरण अनार्य हो। और स्वामी समन्तभद्रने तो "यो लोके त्वा नतः सोऽतिहीनोऽप्यति गुरुर्यतः" इत्यादि वाक्यके द्वारा यहां तक सूचित और घोषित किया है कि 'नीचसे नीच कहा जाने वाला मनुष्य भी जैनधर्मको धारण करके इसी लोकमें अति उच्च बन सकता है*'। तब अनुवादकजी जाति और कुलको अनादिनिधनताके स्वप्न देख
* विशेष जाननेके लिये देखो, 'अनेकान्त' किरण १ की, २ री पृष्ठ ११,१२ तथा ११५ आदि