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इसके सिवाय सागारधर्मामृतमें भी 'शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुः शूद्ध्याऽस्तु तादृश:' इत्यादि वाक्य के द्वारा शूद्रोंको ब्राह्मणादिकी तरह धार्मिक क्रियाओं का पूरा अधिकार दिया गया है और उक्त वाक्यकी निम्न प्रस्तावनामै उनके आहारादिकी शुद्धिका भी स्पष्ट विधान किया गया है
"अथ शूद्रस्याप्याहारशुद्धिमतो ब्राह्मणादिवद धर्मक्रियाकारित्वं यथोचितमनुमन्यमानः प्राह - "
फिर ब्रह्मचारीजी अथवा क्षुल्लकजी महाराजका यह कहना कैसे ठीक होसकता है कि "शूद्रके व्रतोंका पालन-भोजनपान आदि धार्मिक क्रियाओंका पालन नहीं होता है" ? उन्होंने तो स्वयं पृष्ठ ३८० पर लिखा है कि- “ नगरके समस्त नरनगणने इस कर्मदनव्रतको यथोक्त विधिले धारण किया ।" नगरके समस्त नरनारोगणमें शूद्र भी आगये । जब शूद्रोंने यथोक्तविधि से कर्मदहनयतका पालन किया तब फिर व्रतोंके पालन और भोजनशुद्धिकी वह बात ही कौनसी रह जाती है जिसका अनुष्ठान शूद्र न कर सकता हो ! सत शूद्र तो मुनियों को आहार तक दे सकता है और खुद मुनि भी हो सकता है। * खुद प्रन्थकारने तो उक्त श्लोकके अनन्तर हो यहां तक लिखा है कि जैनधर्मको पालन करता हुआ चपच ( चाण्डाल) भी श्रावकोत्तम (लक आदि) माना गया है, फुत्ता भी व्रतके योगसे देवता हो जाता है तथा एक कीड़ा भी लेशमात्र व्रतके प्रसादसे उत्तम गतिको प्राप्त होता है, और एक दूसरे स्थान
* प्रवचनसारकी जयसेनाचार्यकृत टीकामें सत्शूद्रके जिनदीक्षा लेनेका विधान इस तरहसे किया गया है- "एवं गुणविशिष्टपुरुषो जिनदीक्षा ग्रहणे योग्यो भवति । यथायोग्यं सच्छूद्राद्यपि । "