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[ ११७] लक्ष्य करके लिखा गया है, जिन्होंने पंचअणुव्रत धारण किये थे
और जो समुद्रयात्रा कर विलायत जाते हैं !! मूल के नामपर कितना बेहूदा और नोच यह आक्रमण है !!!
इसके बाद भोजनपानादिसम्बन्धी कार्योंके लिये शूद्रो को घरपर रखनेवाले श्रावकोंको श्रावक न बताकर शुद्रसमान बतानेवाले श्लोक नं० १२४ * का अर्थ थोड़ी सी गड़बड़को लिए हुए देकर अगले पूरे एक पेजपर उसका 'भावार्थ' दिया है और उसमें बहुतसी गड़बड़ मचाई गई है-जैनसिद्धान्तके विरुद्ध मुनियोंको भोजनपानके समय सातवां गुणस्थान बतलाया है ! शूद्रों के हाथकाभोजन करनेवालोंको 'जैनधर्मसे रहित' करारदिया है, जब कि खुद शूद्र लोग व्रतों का पालन ओर क्षुल्लकादि पदको धारणकर उत्तम धर्मात्मा बनते हैं !! और मुसलमान भंगी चमार तथा न्लेच्छादिको जैनो बनाकर उनके साथ भोजन तथा विवाह करने वालोंको जैनमतको आशासे पराङ्मुख बतलाया है और इस विधानके द्वारा उन जैन चक्रवर्तीराजाओंको, जिनमें तीर्थङ्कर भी शामिल हैं, तथा वसुदेवजी और सम्राट चन्द्रगुप्त जैसोंको जैनधर्मसे बहिर्भूत ठहराया है जिन्होंने म्लेच्छ कन्याओंसे विवाह किये थे!!!
(५) पृष्ठ ३७ पर दिया हुआ एक श्लोक इस प्रकार है:
शूद्रश्रावकभेदो हि दृश्यते व्रतपालनात् । शूद्रोऽपि श्रावको ज्ञेयो निर्वतः सोऽपि तत्समः॥१३६॥
* यह श्लोक पिछले लेखमें 'शव जलादिके त्यागका अजीब विधान' इस उपशीर्षकके नीचे दिया गया है और वहीं पर इसके मूलविषयका विचार किया गया है।