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[२१५] सबका मैं बारह गणधरों को केवल हदश्रद्धाके लिये कथन करता हूँ' तो वह जैनशास्त्रोंके विरुद्ध पडता; क्योंकि जैनशास्त्रोंमें भगवान् महावोरके ग्यारह गणधर माने गये हैं-बारह नहीं।
और यदि 'समूहोंका' अर्थ किया जाता और उसका आशय द्वादशसभास्थित जीवोंका लिया जाता तो वह उनके भाई तथा मान्य पं० चम्पालालजोके ही विरुद्ध नहीं बल्कि खुद उनके भी विरुद्ध पड़ता; क्योंकि उन्होंने भी इस प्रथम पृष्ठ ३७८ पर 'गणाः' का अर्थ 'गणधरदेव' किया है ! इसी उलझनके कारण शायद आपने इस श्लोकका अर्थ छोड़ दिया है ! यह कितनी निरंकुशता और मायाचारी है !!
(३) पृष्ट २५१ पर प्रन्थकारने सिद्धोंका वर्णन करते हुए उनका एक विशेषण 'पंचवर्णविराजिता दिया है, अनुवादकने इसका भी कोई अर्थ नहीं दिया ! इसी तरह 'निरागमाः' आदि
और भी कई विशेषणपदों का अर्थ छोडदिया है ! इस पृष्ठपरके श्लोकोका अर्थ कितना वेढंगा और बेसिलसिले किया गया है वह सब देखने से ही सम्बन्ध रखता है । इस प्रकारकी निरंकुशता न्यूनाधिकरूपमें प्रायः सर्वत्र पाई जाती है।
(४) पृष्ठ ३२ पर एक श्लोक निम्नप्रकार से दिया है:धनान्धास्ते गृहे स्वस्य दासीदासान्कुलोज्झितान् । रक्षयिष्यक्ति पानार्थ न्यादार्थ च खलाशयाः ॥१२३॥
इसका सीधा सादा अर्थ इतना ही होता है कि वे धनसे अन्धे हुए दुष्टाशय लोग अपने घर पर भोजनपानके लिये अकु. लीन दासीदासोको रक्खेंगे । परन्तु अनुवादकजीने जो अर्थ दिया है वह इस प्रकार है:
"अर्थ:-हे राजन्, पंचमकालमें धनिक लोग अपने धन के मदमें अन्धे होकर विचाररहित होजायंगे, जिससे वे अपने