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[११४] "और श्वेताम्बर यतियोंके वस्त्र आकाश में उड़ा देनेसे (मंत्रद्वारा भगवान् कुन्दकुन्द स्वामोके उड़ा देनेसे) उनको बड़ा हो नीचा देखना पड़ा।"
इसके सिवाय, 'केवलाभिधयुक्तानां ' पदका जो अर्थ 'श्वेताम्बर' किया गया है वह मूलकी ('नाममात्रके' की) स्पिरिटसे बहुत कुछ हीन है-प्रन्थकारने जिस विशेषणके साथ उन यतियोंका उल्लेख किया है उसका ठोक द्योतन नहीं करता! और इसलिये उक्त अर्थ त्रिदोषयुक्त है।
(२) पृष्ट २१६ परके प्रथम सात श्लोकोंमें से जिस प्रकार अनुवादक महाशयने 'कर्मदहनवतस्य फलं शृणु समा. धिना' इत्यादि श्लोक नं० १७८ का अर्थ बिलकुल ही नहीं दिया है, और जिसका परिचय 'कुछ विलक्षण और विरुद्ध बाते' नामक प्रकरणमें नं०१ पर दिया जा चुका है, उसो प्रकार निम्न श्लोकका भो अर्थ नहीं दिया है:
प्राप्स्यति कां गतिं सैव तत्सर्व कथयाम्यहं । द्वादशानां गणानां तु दृढश्रद्धाय केवलम् ॥१८०॥
यह श्लोक इतना सरल है कि इसका अर्थ देने में कुछ भी दिक्कत नहीं हो सकती थी; परन्तु जान पड़ता है अनु. वादकजीके सामने इसके 'द्वादशानां गणानां' इन पदोंने कुछ उलझन पैदा करदी है; क्योंकि उनक परममान्य पं० चम्पालाल जोने चर्चासागरकी १६ वी चर्चा में 'गण' का अर्थ 'गणधर' सूचित किया है और उनके भाई पं० लालारामजीने उसको टिप्पणो 'गणान्प्रति का अर्थ 'गणधरोंके प्रति' करके उसको पुष्ट किया है, इसलिये यदि वहाँ 'गणानां' का अर्थ वही 'गणधरोंका' किया जाता और कहा जाता कि 'वह (कर्मदहनव्रतका अनुष्ठान करने वाला) किस गतिको प्राप्त होगा उस