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गृहमें नीच और अकुलीन नौकर चाकरोंको रक्खेंगे और उनके हाथसे भोजनपान करेंगे । जिस समय कुसंगति या कुशिक्षासे धनवान लोगोंकी बुद्धि भ्रष्ट होजाती है उस समय उनका विचार भी गंदा होजाता है । उन्हें हिताहितका विवेक नहीं रहता जिससे धर्म और सदाचारको पवित्र मर्यादा का विचार न कर अपने घर में नींव मनुष्योंको ( दासदासी) रखकर उनके हाथका भोजन करने लगजाते हैं। नीच मनुष्योंके हाथका भोजनपान करना धर्मशास्त्र की पवित्र आशासे विरुद्ध है और सदाचारका लोपकरनेवाला है । जो लोग नीच मनुष्यों के हाथका भोजनपान करते हैं वे जैन नहीं हैं। उनके धर्मकी श्रद्धा नहीं है । अतपत्र वे नाममात्रके ही जैन हैं ॥ १२३ ॥ "
पाठकजन ! देखा, कितना मूलबाह्य यह अर्थ किया गया है ! इसमें 'हे राजन्, पंचमकालमें' ये शब्द तथा 'जिस समय' से लेकर 'जैन हैं' तकका सारा कथन अपनी तरफ़ से बढ़ाया गया है और उसे श्लोक नं० १२३ का अर्थ सूचित किया गया है !! इतने परसे भी अनुवादककी तृप्ति नहीं हुई तब इसी लोक में नीचेके अर्थकी औरभी वृद्धि की गई है, और इसलिये १२३ नम्बर निम्न अर्थके बाद दिया जाना चाहिये था - ऊपर ग़लती से देदिया गया है ।
"जो लोग अपवित्र साधनोंके साथ समुद्रयात्रा कर नीच लोगोंके हाथका अपवित्र और अभक्ष्य भोजन कर अपनेको सम्यग्दृष्टि बतलाते हैं वे श्री जिनेन्द्रदेवके आगमके श्रद्धानी नहीं हैं। तथा जो लोग ऐसे नोच पुरुषोंके हाथका भोजन कर अपनेको पंचअणुव्रतधारी बतलाते हैं वे बनावटी जैनी हैं ।" इस अंशकी समुद्रयात्रा आदि बातोंका मूलमें कहीं भी कुछ पता नहीं है । यह अंश बैरिस्टर चम्पतरायजी जैसों को