Book Title: Suryapraksh Pariksha
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 138
________________ [१२०] पर मातादिकके कर्मदहन व्रतफे अनुष्टानसे सुख पानेका उल्लेख किया है* तब क्या क्षुल्लकजी के न्यायालयमें शूद्रकी पोजीशन श्वपच, मातङ्ग, कुत्ते और कोड़ेसे भी गई बोती है जो ये सब तो व्रतका पालन कर सके परन्तु शूद्र न कर सकें ? शूद्रोंके प्रति घृणा और द्वेषकी भी हद हो गई !! खेद है कि प्रन्थकारने तो शूद्रोंके साथ इतना ही अन्याय किया था कि उनके व्रती एवं शुद्धाचरणो होने पर भी उनके हाथके भोजन. पानको निषिद्ध ठहराया था परन्तु अनुवादकजीने चार कदम आगे बढ़कर मिथ्या और विपरीत अनुवादके द्वारा उनके व्रतपालन अथवा धार्मिक क्रियापालनके अधिकारको हो हडपना चाहा है !! इस मायाचारी और कपटकलाका भी कुछ ठिकाना है !!! ऐसे ही प्रपञ्चमय अनुवादोंके कारण मैंने इस प्रन्थको 'एक तो करेला और दूसरे नीम चढ़ा' को कहावतको चरितार्थ करने वाला बतलाया है। अनुवादकजीकी नसोंमें जातिभेद और जातिमदका कुछ ऐसा विषम विष समाया है कि एक स्थान पर तो ( पृष्ठ ६ के फुटनोटमें ) वे यहाँ तक लिख गये हैं कि-"जाति, कुल अनादिनिधन हैं, और उनका सम्बन्ध नीच ऊंच गोत्रसे है। ऐसा नहीं है कि जिसका रोज़गार (धन्धा) ऊंचा वह ऊंच और जिसका धन्धा नीचा वह नीच हो।" और इसके द्वारा वे अनजानमें अथवा मर्छित अवस्थामें यह सुझा गये हैं कि एक वैश्यादि ऊंच जातिका जैनी यदि भङ्गी, चमार, खटीक, चाण्डाल अथवा कसाईका भी धन्धा करने लगे तो भो वह ऊच ही रहेगा-नीच नहीं होने पायेगा। और एक सतशूद्र * इन कथनोंके सूचक वाक्य 'कर्मसिद्धान्तकी नई ईजाद' नामक उपशीर्षकके नीचे उद्धृत किये जा चुके हैं।

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