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[११८] इसका खुला अर्थ यह है कि 'शूद्र और श्रावक का भेद व्रतपालन से स्पष्ट होता है. व्रतोंका पालन करता हुआ शूद्रभी श्रावक है और व्रतरहित श्रावक को भो शू द्रसमान समझना चाहिये।
इस सीधेसाधे और स्पष्ट अर्थको भो अपने मायाजालके भीतर छिपाकर लोगोंको आंखोंमें धूल डालने का अनुवादक महाशयने कैसा जघन्य प्रयत्न किया है वह उनके निम्न अनुवाद (अर्थ) परसे सहज ही में समझा जासकता है।
"अर्थ-शूद्र और श्रावक में यदि भेद है तो इतना हो है कि शूद्र के सोलह संस्कार के अभावसे व्रतोंका पालन-भोजन पान आदि धार्मिक क्रियाओं का पालन नहीं होता है और श्रावकों में होता है। जो श्रावक अपने भोजनपान आदि धार्मिक प्रतक्रियाओं को भूलजावे-नहीं करे--तो वह शूद्रके समान हो है ॥ १३६ ॥"
इसमें शूद्रके सोलहसंस्कारके अभाव आदि को बातको अनुवादकजीने बिलकुल अपनी तरफ़से जोड़ा है और 'व्रतपालनात शूद्रोऽपि श्रावकोशेयो' इन शब्दोंके आशयको आपबिलकुल हो उड़ा गये हैं !! अपने इस अर्थके द्वारा आप यह प्रतिपादन करना चाहते हैं कि शूद्र व्रती नहीं हो सकता! परन्तु यह जैनशास्त्रोंकी आशा और शिक्षाके बिलकुल विरुद्ध है-जैनशास्त्र शूद्रोंके श्रावकीय व्रतपालनके उदाहरणों से भरे पड़े है और उनमें शूद्रोंके लिये क्षुल्लकादि रूपसे उत्कृष्ट श्रावक होनेका ही विधान नहीं है बल्कि सोमदेवसूरिके निम्न वाक्यानुसार मुनिदीक्षा तकका विधान पाया जाता है:
दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चतुर्थश्च विधोचितः । मनोवाकायधर्माय मताः सर्वेऽपिजन्तवः॥-यशास्तलक ॥