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रहे हैं ! और शूद्रमात्रका घोर तिरस्कार कर रहे हैं !! इससे पाठक समझ सकते हैं कि वे जैनाचार्यों के वाक्योंको अवहेलना करते हुए जैनधर्मके दायरे से कितने अधिक बाहर जा रहे हैं !!!
(६) पृष्ठ ३७७ पर एक श्लोक निम्न प्रकारले दिया है, जिसके मूल अर्थका विचार 'कर्म सिद्धान्तको नई ईजाद' नामक उपशीर्षक के नीचे किया जा चुका है:
म्लेच्छोत्पन्ना नरा नार्यः मृत्वाहि मगधेश्वर ! भवन्ति व्रतहीना हमे वामाश्च मानवाः ॥ १७५ ॥
इसमें साफ़ तौरपर यह कहा गया है कि 'हे मगधेश्वर ! म्लेच्छों से उत्पन्न हुए स्त्री-पुरुष मरकर निश्चयसे व्रतहीन मनुष्य स्त्री-पुरुष होते हैं'। इस सीधे सादे स्पष्ट अर्थके विरुद्ध अनुवादकजीने जो अद्भुत लीला रची है और जो प्रपंचमय अर्थ किया है, अब उसे भी देखिये ! वह इस प्रकार है
''अर्थ - जिनके यहां पुनर्विवाहादि मलिन आचरण है, जिनको उत्तम व्रत धारण करनेको योग्यता हो नहीं प्राप्त होतो है उनको म्लेच्छ व शुद्र कहते हैं। शूद्रोको शीलवत किसी तरह भी पालन नहीं हो सकता है। क्योंकि उनके यहां उनकी जाति में पुनर्विवाह होता है । पुनर्विवाह व्यभिचार है । व्यभि• चार करने वालोंके शीलवत हो हो नहीं सकता है। शोलवतके अभाव से अन्य व्रत का पालन भी परिपूर्ण नहीं होता है । अतएव ऐसे जोव मरकर व्रतविहीन होते हैं । "
पाठकजन ! देखा, कितना मूलबाह्य यह सब अर्थ है ! और कैसी निरंकुशता से काम लिया गया है !! इस सारे अर्थ में "मरकर व्रतविदोन होते हैं" इन अन्तिम शब्दोंके सिवाय और