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[१२४] हो ही नहीं सकता। चारुदत्तादि कितने हो महाव्यभिचारियों का तो पोछेसे इतना सुधार हुआ है और वे इतने पूरे ब्रह्मचारी एवं धर्मात्मा बने हैं कि बड़े बड़े आचार्यों को भी उनकी प्रशंसा में अपनी लेखनोको मुक्त करना पड़ा है। फिरभी यहां अनुवादकजीकी आँख खोलने के लिये दा ऐसे स्पष्ट प्रमाण उपस्थित किये जाते हैं जिनमें पूजकके दो भेदोमं से आधभेद नित्यपूजक का स्वरूप बतलाते हुए और उसमें शूद्रका भी समावेश करने हुए शूद्रको भी 'शोलवान' तथा 'शोलतान्वित होना लिखा है-बाको दृढ़पती, दृढ़ाचारी और शोचसमन्वित होनको बात अलग रही:
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रोवाऽऽधः सुशीलवान् । दृव्रतो दृढाचारः सत्यशोचसमन्धितः ॥१७॥
-पूजासार । ब्राह्मणादिचतुर्वण्य प्रायः शीलवतान्वितः । सत्यशौचदृढाचारो हिंसाधनतदूरगः ॥६-१४३॥
-धर्मसंग्रहश्रावकाचार | यहां पर मुझ अनुवादकजो के प्रतिपाद्य विषयकी कोई विशेष आलोचना करना इष्ट नहीं है-उनकी निरंकुशता और उसके द्वारा घटित अनर्थका ही कुछ दिग्दर्शन कराना है। इसलिये इस विषयमें अधिक कुछ लिखना नहीं चाहता। हाँ, इतना ज़रूर कहना चाहता हूं कि अनुवादकजोने यह लिख कर कि जिनकी जातिमें पुनर्विवाह होता है उनके शोलवतका किसी तरह भो पालन नहीं हो सकता, एक बड़ा ही अनर्थ घटित किया है, और वह यह कि इससे उन्होंने अपने गुरु आचार्य शांतिसागर जोक ब्रह्मचर्यको भी सशंकित बना दिया है। क्योंकि उनको जातिमें विधवाविवाह होता है । तब शिष्य