________________
[ १२६ ]
सत्यता व प्रामाणिकता सर्वज्ञ प्रभुको सत्यता पर निर्भर है । सर्वज्ञ प्रभु वीतराग, त्रिकालमें उनकी प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध है। जो मनुष्य सर्वज्ञके वचनोंमें अपनो दुष्ट बुद्धिकी कल्पना से असत्यता प्रकट कर प्रामाणिकता नष्ट करे तो वह आगम का या ग्रंथका लोपो है। उसके न तो आगमकी श्रद्धा है और न सर्वश प्रभुकी । ऐसी अवस्थानें वह अपनी इंद्रियजनित बुद्धिको हो कुत्सित तर्क और अनुमानजनित विचारसे स्थिर रखकर शास्त्रों की मिथ्या आलोचना कर पापका भागी बनता है। कितने दो दोंगो - जिनधर्मको श्रद्धा रहित जैन सुधारक - मिथ्यात्व के उदयसे शास्त्र और गुरुऑकी मिथ्या समालोचना करते हैं, सत्य शास्त्रों में अवर्णवाद लगाकर सर्वज्ञ प्रभुके आगमको असत्य ठहराना चाहते हैं । उनको संस्कृतप्राकृतका ज्ञान नहीं है, आगमका श्रद्धान नहीं है । अपने आप भावक बन कर ब्रह्मदत्त के समान प्रत्यक्ष में पतित होते हैं ।"
पाठकजन ! देखा, मंथसामान्य अथवा ग्रन्थ मात्रको आगमके साथ और सर्वश के साथ जोड़कर अनुवादक महाशय ने यह कैसा गोलमाल करना चाहा है, कैसा मायाजाल रचा है और उसमें भोले भाइयोंको फंसाकर उन्हें अंधश्रद्धालु बनाने का कैसा जघन्य यत्न किया है ! क्या त्रिवर्णाचारों जैसे ग्रंथ, भद्रबाहु संहिता जैसे ग्रंथ, उमास्वामि श्रावकाचार जैसे ग्रंथ, चर्चासागर जैसे ग्रंथ और सूर्यप्रकाश जैसे ग्रंथ आगम ग्रंथ हैं ? सर्वश भगवान्के कहे हुए हैं? यदि नहीं, तो फिर ऐसे ग्रंथोंकी आलोचना से और उनके अप्रामाणिक ठहराये जानेसे विचलित होनेकी क्या ज़रूरत है ? क्या ख़ास सर्वज्ञकी मुहर लगे हुए कोई ग्रंथ हैं, जिनकी परीक्षा अथवा आलोचना न होनो चाहिये ? यदि नहीं -- प्रत्युत इसके ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं