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[११२] एक गृहस्थका शिष्यथा और उसने ग्रंथको प्रशस्तिमें खुद अपनी गुरुपरम्पराका उल्लेख किया है, जिसका परिचय शुरू में (१०१४ पर) कराया जा चुका है।
__इसके बाद अनुवादकको यह चिन्ता पैदा हुई कि ग्रंथकारको आचार्य तो बना दिया परन्तु ग्रंथम दिया हुआ ग्रंथका निर्माण समय संवत् १९०९ यदि प्रकट किया गया तो यह सारा खेल बिगड़ जायगा, ग्रंथ बहुत ही आधुनिक हो जायगा
और तब ग्रंथकारके आचार्यपदका कुछभो महत्व अथवा मूल्य नहीं रहेगा, और इसलिये उसने इतनी चालाकी एवं माया. चारोसे काम लिया कि पृष्ठ ४११ पर दिये हुए उस समयसूचक श्लोक नं० ३४३ का अर्थ ही नहीं दिया, जिसे अर्थसहित शुरूमें पृ० ११ पर प्रकट किया जा चुका है-उस स्थान पर यह ज़ाहिर तक नहीं होने दिया कि हम उसका अर्थ छोड़ रहे हैं !! अथवा उसका अर्थ नहीं हो सका !!!
इसके सिवाय, ग्रंथकी जो बाते अनुवादकको इष्ट मालूम नहीं दी उनका या तो उसने अर्थ ही नहीं दिया और या अपने मनोऽनुकूल अन्यथा एवं विपरीत अर्थ कर दिया है ! और जो बातें मूलग्रन्थमें नहीं थों और जिन्हें घह मूलके नाम पर प्रकट करना अथवा चलाना चाहता था उन्हे उसने प्रायः चुपकेसे मूलघाक्योंके अर्थके साथमें इस तरहसे शामिल कर दिया है जिससे हिन्दी पाठकों द्वारा वे भी मुलग्रंथकी ही बातें समझ ली जायं और उन्हें पढ़ते समय यही मालूम होता रहे कि यह सब प्रन्यकार प्राचार्य महाराज ही कह रहे हैं !! इस तरह अनुवादकको निरंकुशता और उसको उक्त मनोवृत्तिके कारण इस प्रन्यके अनुषादमें बहुत कुछ अर्थका अनर्थ हुआ है ! और यह अनुवाद उच्छृङ्खलता, असावधानी एवं बेडंगेपन के साथ साथ अर्थको हीनता-न्यूनता, अर्थको अधिकता