________________
[१९१] को यों ही धुरा बतला दिया है !! साथ ही विधवा-विवाहकी, विजातीय विवाहकी, जातिपाँतिलोपकी, भङ्गी चमारोंकी, समुद्रयात्राको और शूद्रोंके व्रत न पाल सकने आदिको ऐसी हो कुछ बातें उठाकर अथवा साथ में जोड़कर, जिनका मूल ग्रंथ में कहीं नाम-निशान तक भी नहीं है, जनताके ऊपर अपने विचारोंको लादा गया है तथा अपने मार्गकण्टकों एवं सुधारकों आदिके विरुद्ध उसे भड़काकर अपना रास्ता साफ करने, अपने दोषों पर पर्दा डालने और अपना रंग जमानेका दूषित यत्न किया गया है। और इस सबके लिये अथवा यो कहिये कि अपनी तथा प्रन्थको बातोंको चलाने और अपने दोषोंको छिपाते हुए, अपना सिक्का जमानेके लिये, अनुवादकको कितनी ही चालाको मायाचारी एवं कपटकलासे काम लेना पड़ा है और प्रायः उस चोरको नीतिका भी अनुसरण करना पड़ा है जो भागता हुआ यह कहता जाता है कि 'चोर ! चोर !! पकड़ो! पकड़ो !! वह जाता है ! इधरको भागा ! बड़ा अनर्थ होगया !! इत्यादि' और इस कहने में उसका एक मात्र आशय अपनी तथा अपने मार्ग की रक्षा और दूसरों को धोखेमें डालना हो होता है !! सबसे पहले अनुवादकने प्रन्थकार पं० नेमिचन्द्रको आचार्यके आसन पर बिठलाया है, जिससे यह प्रन्थ आचार्यप्रणीत एवं आर्षवाक्यके रूपमें समझ लिया जाय ! जैसाकि ग्रंथ के पृष्ठ १८१ पर दिये हुए “आचार्य महाराज कहते हैं इस निराधार वाक्यसे तथा पृष्ठ ४०० पर "वंद्या नेमीन्दुनाना" के अर्थ रूपमें दिये हुए निम्न वाक्यखण्ड से प्रकट है:"नेमिचन्द्र (प्रंथकर्ताका नाम) आचार्य से बंदनीक"
परन्तु ग्रंथकार नेमिचन्द्र कोई आचार्य नहीं था, बल्कि एक साधारण तथा धूर्त पंडित था । पं० शिवजीराम नामके