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[१०९] अथवा विशेष आलोचना * । अब ग्रन्थके अनुवादको भो लीजिये। अनुवादककी निरंकुशता और
अर्थका अनर्थ ! उस प्रंशके अनुवादमें अनुवादक पं० नन्दनलालजीने,
जो अनुवादक समय ब्रह्मचारो ज्ञानचन्द्रजो महाराज' थे और अब 'क्षुल्लक ज्ञानसागरजी महाराज' के रूपमें शांतिसागरसंघमें विराजमान हैं, जिस स्वच्छंदता एवं निरंकुशतासे काम लिया है और उसके द्वारा जो अनर्थ घटित किया है उसका यदि पूरा परिचय कराया जाय और ठोक ठोक आलोचना को जाय तो एक अच्छा खासा बड़ा ग्रंथ बनजाब-अब तकके लेख परिमाण से उसका परिमाण बहुत बढ़जाय । परन्तु मैं अब इस निबन्ध को अधिक बढ़ाना नहीं चाहता हूं, अनुवादक को इस निरंकुशता आदिका कितना हो परिचय पिछले पृष्ठों में भो प्रसंग पाकर दिया जाचुका है और उसके द्वारा प्रन्थ तथा ग्रंथकारादिका जो स्वरूप प्रकट किया गया है उसे देखते हुए बहुत अधिक लिखनेको कुछ ज़रूरत भो मालूम नहीं होती। अतः प्रकृत ग्रंथके अनुवाद-सम्बन्धमें संक्षेपरूपसे कुछ थोडासा
* इसमे ग्रन्थके भाषासाहित्यकी आलोचनाको जान बूझकर अनावश्यक समझते हुए शामिल नहीं किया गया, जो कि व्याकरणादि सम्बन्धी बहुत कुछ त्रुटियों तथा दोषों से परिपूर्ण है और जिसके लिये प्रकाशकको ही, उसके कुछ अशुद्ध प्रयोगोंको देखकर, यहां तक लिखनापड़ा कि वह "प्रचलित संस्कृत व्याकरण तथा कोषके अनुसार नहीं है"।