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[१०७] दि योगीन्द्र मौजूद थे और बादको पाँचवे कालमें भी भद्रबाह, धरसेन, कुन्दकुन्द, समन्तभद्र और जिनसेनादि कितने हो धेष्ठ योगीन्द्र हो चुके हैं जिन्हें इस ग्रंथमें भी 'इत्याद्या वर. योगीन्द्राः' जैसे शब्दोके द्वारा 'वरयोगोन्द्र' प्रकट किया गया है*; तब भगवान्का पंचमकाल के साथ 'अधुना' शब्द जोड़कर अपने समयको पंचमकाल बतलाना, खुद तोर्थङ्कर तथा केवली होते हुए भी उस समय तीर्थकर तथा केवलोका अभाव प्रकट करना और अपने सामने गौतमादि गणधरों जैसे महायोगीन्द्रों के मौजूद होते हुएभी 'इस समय कोई महाव्रतधारी योगीन्द्र दिखलाई नहीं देते' ऐसा कहना कितना हास्यास्पद तथा आश्चर्यजनक है और उसके द्वारा भगवानका कितना गहलापन तथा उन्मत्तप्रलाप पाया जाता है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते है। भगवानके मुंहसे इन वाक्योंको कहला कर ग्रंथकार ने निःसन्देह भगवानको बड़ोही मिट्टी ख़राब की है और उन्हें कोरा बुद्धृ ठहराया है !!
यदि भगवान कहीं इस समय सजीव देहधारी होते या देहधारण कर यहाँ आते और इस प्रथको देख पाते तो आश्चर्य नहीं जो वे यों कह उठते
'जौहर थे खास मुझमें प्राप्तस्वरूप के । यों स्वांग बना क्यों मेरी मिट्टी खराब की !!'
सचमुच हो इस सारे ग्रंथमे भगवान महावीरका स्वाँग बनाकर और उससे अटकलपच्चू यद्वातद्वा कहलाकर उनकी खूब अच्छी तरहसे मिट्टी खराब की गई है। उनके ज्ञान,श्रद्धान, विवेक, अकषायभाव, समता, उदारता, सत्यवादिता, सभ्यता,
* इसके लिये देखो, पृष्ठ २७ पर उद्धृत श्लोक नं. १५४ से १५६ ।