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[१०८] शिष्टता, पदस्थ ओर पोजीशन आदि सब पर पानी फेरा गया है और उन्हें कठपुतलीकी तरह नचाते हुए विद्वानोंकी इष्टिमें ही नहीं, किन्तु साधारण जनों की दृष्टिमें भी बहुत कुछ नीचे गिराया गया है !! यह सब ग्रंथकार पंडित नेमिचन्द्रको धूर्तता, मूढता, अविवेक परिणति, कषायवर्तिता, साम्प्रदायिक कट्टरता, स्वार्थसाधुता, क्षुद्रता और उस अहंकतिका ही एक परिणाम जान पड़ता है जिसने उससे यह गर्योति तक कराई थो कि 'इस ग्रंथके श्रवणमात्रसे प्रतिपक्षोजन मंत्रकीलित नागोंकी तरह मूकवत् स्थिर होजायंगे-उन्हें इसके विरुद्ध बोलतक नहीं आएगा ! वह अपनी अज्ञानता, विक्षिप्तचित्तता और अहंकारादिके वश हुवा भगवान् महावीर के पार्टको इस ग्रंथमें ज़रा भी ठोक तौरसे अदा नहीं कर सकाखेल नहीं सका !! उसने व्यर्थ ही अपने हृदय, अपने अज्ञान, अपने संस्कारों, अपनो कपाय-वासनाओं, अपनी बातों और अपने कहने के ढंग को भगवान् महावीरके ऊपर लादा है !!!
और इस लिये इस ग्रंथको रचकर उसने जो घोर अपराध किया है वह किसी तरह भी क्षमा किये जानेके योग्य नहीं है। ऐसे महाजाली, झूठे, निःसार, अनुदार, प्रपंची और असम्बद्ध. प्रलापी एवं विरुद्ध कथनोंसे परिपूर्ण प्रथको किसी तरह भी जैन प्रन्थ नहीं कहा जा सकता। इसे जैनमन्थोंका भारी कलंक समझना चाहिये और इसलिये जितनाभो शोघ्र होसके इसका जैनसमाजसे बहिष्कार किया जाना चाहिये।
यह तो हुई प्रायःमूल प्रथको जांच और परीक्षा
® इस गर्वोक्ति का घोतक मूलवाक्य पृष्ठ २६ पर उद्धत किया जा चुका है।