Book Title: Suryapraksh Pariksha
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 128
________________ [११०] विशेष परिचय और करादेना चाहता हूं, जिससे पाठकोंको अनुवादकी असलियत, निःसारता और अनुवादककी प्रकृति, प्रवृत्ति एवं चित्तवृत्तिके समझनेमें विशेष मदद मिले और वे उन सबका यथेष्ट अनुभव करसकें। अनुवादस्थितिका सामान्य परिचय इस ग्रंथके सारे अनुवादमें अनुवादक महाशय को उत्तर दायित्वशून्य प्रवृत्ति (निरंकुशता ) के साथ साथ प्रायः यह मनोवृत्ति काम करती हुई दिखलाई देतोहै कि-अपने मन्तव्योंको पुष्ट करनेवालीभट्टारकीय शासनकी बातोका प्रचार किया जाय; भट्टारकीय मार्गकी पुनः प्रतिष्ठाकी जाय; शास्त्रको ओट में अपने युक्तिशून्य विचारोंको चलाया जाय; लोग परीक्षाप्रधानो न रहें, न धने, किन्तु अन्धश्रद्धालु बनें; भट्टारक मुनियों, नग्न भट्टारकों और उनके गणधरों एवं पृष्ठपोषकों को किसी भी प्रवृत्तिके विरुद्ध कोई अंगुली न उठावे-आलोचना न करें; सब लोग उनकी भरपेट पूजा-उपासना, सेवा सुश्रूषा किया करें अथवा सब प्रकारकी उनको आवश्यकताओं को पूरा करते हुए उनके पूर्ण भक्त बनें; उनकी आशामें चले; उनके साहित्यको, ग्रंथोंको. क्रियाकाण्डको पूरा मान देघे, अपना और उनके इशारों पर नाचा करें । और इस तरह सर्वत्र उन्होंकी एक सत्ता कायम हो जाय ! इसीलिये उन्होंने अपने तथा अपने गुरुओंके मार्गकण्टको, सुधारको, तेरहपन्थियों एवं परोक्षाप्रधानियों पर जगह जगह बात बिनबात व्यर्थक भाक्रमण किये हैं उन्हें बिना हो किसो हेतुके मिथ्यादृष्टि, अश्रद्धानो, ढोंगी, आगमादि-लोपक एवं अधार्मिक आदि बतलाया है। और मुनिभट्टारकों आदि की आलोचनाओं, उनकी असत्प्रवृत्तियोंको निन्दाओं तथा उनके कुत्सित साहित्यको अथवा प्रथमात्रकी परीक्षाओं-समीक्षाओं

Loading...

Page Navigation
1 ... 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178