Book Title: Suryapraksh Pariksha
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 131
________________ [११३] अतिरिक्तता (मूलवाहता) और अर्थक अन्यथापन (वैपरीत्य) को एक बड़ीही विचित्र मूर्ति बन गया है !! और इसलिये इसे बहुत ही विकृत तथा सदोष अनुवाद कहना चाहिये। अस्तु। विशेष परिचय अथवा स्पष्टीकरण अब मैं कुछ नमनों अथवा उदाहरणाके द्वारा अनुवादको इस स्थितिको स्पष्ट कर देना चाहता हूं, जिससे पाठकोंको इस विषयमें कुछभी सन्देह न रहे: (१) पृष्ठ ९८वे पर एक श्लोक निम्न प्रकारसे अर्थसहित दिया है: केवलाभिधयुक्तानां यतीनां सर्वदेवताः । पलायिताश्च तस्माद्भ तत्प्रभावाच श्वानवत् ॥४२८॥ "अर्थ-श्वेताम्बर यतियोंके आराधन किये हुए समस्त देवतागण सरस्वतीके प्रभावसे पलायमान हो गये जिससे उनका समस्त अभिमान मिट्टी में मिल गया ॥४२८॥" इस अनुवादमें 'श्वानवत्' पदका कोई अर्थ नहीं दिया गया, जोकि पलायमानसे पहले 'कुत्तोंकी तरह ऐसे रूपमें दिया जाना चाहिये था। जान पड़ता है अनुवादकजी को देवताओंके लिये प्रन्थकारकी यह कुत्तोंकी उपमा पसंद नहीं आई और इसलिये उन्होंने इस पदका अर्थ ही छोड़ दिया है ! साथ ही, 'जिससे उनका समस्त अभिमान मिट्टोमें मिल गया' यह वाक्य अपनी तरफसे जोड़ दिया है, जिसे अनुवादककी चित्तवृत्तिका एक रूप कहना चाहिये ! मूलमें इस अर्थका घोतक कोई भी शब्द नहीं है ! इसो तरहका एक मूलबाह्यवाक्य पृष्ठ ९५ पर श्लोक नं०४१२ के अर्थ में भी जोड़ा गया है, जो इस प्रकार है:

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