Book Title: Suryapraksh Pariksha
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 123
________________ [१०५ (ख) कर्मदहनवतके फलकथनमें-जो राजा श्रेणिकको सुनाया गया है-मोक्षस्थानादिका वर्णन करते हुए, "दिशे मगधाधीश मोक्षस्थाने मनोहरे" इत्यादि श्लोकसे पहले एक हो श्लोकके अंतरपर-निम्न दलोक दिया है और उसके द्वारा भगवान् महावीरसेमुक्त जीवोंके प्रति यह प्रार्थना और याचना कराई गई है कि वे उसे बोधि और समाधि प्रदान करें: ते मया संस्तुताः सर्वे चिन्मयाः कायवर्जिताः । मे समाधि सुबोधि च यच्छन्तु नोपरा इह ॥११॥ इससे मालूम होता है कि समवसरण-स्थित भगवान् महावीर बोधि और समाधिसे विहोन थे ! उन्हें दोनोंको ज़रूरत थी और इसलिये स्तुतिके अनंतर उन्होंने उनके लिये याचना को है !! और शायद इसीलिये उन्होंने, स्तुतिका प्रारंभ करते हुए, "किंचित् बुद्धिलवेन भव्यवचसा तेषां च कुर्वे स्तवं" इस वाक्यके द्वारा अपनेको थोडीसी वुद्धिका धारक भी सूचित किया है !!! 'बोधि' अर्हद्धर्मको प्राप्तिको, सम्यग्दर्शन (सम्य. पत्व) को तथा पूर्ण ज्ञान ( Perfect wisdom) को भी कहते हैं, और 'समाधि' स्वरूपमै चित्तको स्थिरताका नाम है अथवा “प्रशस्तं ध्यानं शुक्लं धम्य वा समाधिः" इस श्री विद्यानन्दके वाक्यानुसार धर्म्य और शुक्ल नामके प्रशस्त ध्यानों को भी समाधि कहते हैं । अब पाठकजन सोचिये, कि क्या केवलबान और केवलसम्यक्त्व आदि क्षायिक गुणोंको पाकर अथवा परम आर्हन्त्य पदको प्राप्त होकर भी भगवान् महावीर बोधिसमाधिसे विहीन थे ?- उन्हें पूर्णशान नहीं था ? स्वरूपमें उनका चित्त स्थिर नहीं था? और वे प्रशस्त ध्यानी नहीं थे ? यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर ऐसे आतपुरुषोंसे

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