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[१०३] भी उन्होंके मुखसे और उन्हींके शासनके विरुद्ध कहलाये गये हैं !!! जिन भगवान् महावीरने शूद्रोंकासंकट दूर किया, उन पर होते हुए ब्राह्मणोंके अत्याचारोंका तोत्र विरोध कर उन्हें हटाया
और उन्हें सब प्रकारको धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की, उन्होंके मुखसे शूद्रोंके प्रति ऐसे अन्याय तथा तिरस्कारमय शब्दों का निकलना कब संभव हो सकता है और कौन सहृदय उसपर विश्वास कर सकता है ? कोई भी नहीं, और कभी भी नहीं ।
१२ भगवानकी मिट्टी खराब !
इस प्रन्थमें भगवान महावीर के मुखसे बहुतसा असम्बद्ध प्रलाप कराकर और अनेक आपत्तिके योग्य, पूर्वापरविरुद्ध, इतिहासविरुद्ध, सत्यविरुद्ध तथा अपने ही शासनके विरुद्ध कितनी ही बेढंगी बाते कहलाकर और भगवान्को अच्छा खासा मूर्ख, अविवेकी, अनुदार, साम्प्रदायिक कट्टर, विक्षिप्तचित्त, असभ्य, अशिष्ट, कषायवशवर्ती और कलुषित हृदय क्षुद्रव्यक्ति चित्रित करके उनकी कैसो मिट्टो खराब को गई है, इसका कितना ही परिचय पाठकोंको अबतकके उल्लेखों द्वारा प्राप्त हो चुका है। यहां पर दो तीन बातें और भी इसो विषयको प्रकट की जाती हैं :
(क) सम्मेदाचलके प्रकरण में, कूटोंके नामादिसम्बन्धी राजा श्रेणिकके प्रश्नको लेकर, भगवान् महावीरसे सम्मेदशिखरका स्तोत्र * कराया गया है और उसमें उनसे "अहं नमामि शिरसा त्रिशुद्ध्या तं तीर्थराज शिवदायकं च", "इंडे
ॐ इस स्तोत्रमें राजा श्रीणिकको सम्बोधन करने के लिये नप, नृपते, मगधाधीश, नराधीश और बेलनापते जैसे पदोंका प्रयोग किया गया है।