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सदा शिवदायकं च" जैसे वाक्योंके द्वारा सिर झुकाकर पर्वतराजकी पूजा बन्दना तक कराई गई है ! इतना ही नहीं, बल्कि इस स्तोत्र की प्रतिज्ञाके अवसरपर भगवान्को गणधरों, सर्वमुनियों तथा जिनवाणीके भी आगे नतमस्तक किया गया है - अर्थात् उन्हें भी नमस्कार कराकर स्तोत्र की प्रतिज्ञा कराई गई है !! यथा :
नत्वा श्रीजिननायकान् गणधरान्देवेन्द्रवृन्दार्चितान् मौनीन्द्रान् सकलान् तथा च सुखदां जैनेन्द्रवक्त्रोद्भवाम् । arfi पापप्रणाशिकi मुनिनुतां सद्बुद्धिदां पावनीं सम्मेदाभिधपर्वतस्य शिवदं स्तोत्र करोमि शुभम् ॥ पृ० २६५
मालूम नहीं जिनेन्द्रपदवी और परम आर्हन्त्य दशाको प्राप्त भगवान् महावोरका अपने हो उपासक गणधरों तथा मुनियों और अपनी ही वाणीके-अपने ही शास्त्रोंके-आगे सिर झुकानेका तथा पर्वतकी स्तुति बन्दनाका क्या अभिप्राय और उद्देश्य हो सकता है ! वास्तव में तो इस प्रकारकी स्तुति तथा पूजा वन्दना जिनेन्द्रपदको एकमात्र विडम्बना है अथवा
कहिये कि ये सब भगवान् महावीरको उस स्थिति तथा पोजीशन के विरुद्ध है जिसे लिये हुए वे केवलज्ञानके पश्चात् समवसरण में स्थित थे । वे इन मुनियों आदि की वन्दना और पर्वतों की स्तुतिपूजा के भावसे बहुत ऊँचे उठ चुके थे - उपा
कोंकी इस श्रेणीसे ही निकल चुके थे, और इसलिये उन से इस प्रकारकी क्रियाएँ कराना सचमुच ही उनकी मिट्टी ख़राब करना है !! उन्हें एक तरहसे ज़लील ( अपमानित ) करना है !!!