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[१०२] न्यायानुमोदित भी जान पड़ता और दिलको भी लगता । प्रत्युत इसके, ऊपरका विधान बिलकुल जैनधर्मकी शिक्षाके बाहर है-शूद्रों के प्रति घृणा, तिरस्कार एवं दूपित मनोवृत्तिका घोतक है । जैनधर्ममें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद ये भेद वृत्ति (आजीविका) के आश्रित हैं और इन सभीको जैनधर्मके पालनका अधिकारी बतलाया है सभी लोग वर्णानुसार अपनी अपनी आजीविका करते हुए जैनधर्मका यथायोग्य पालन कर सकते हैं और जैनी हो सकते हैं। शूद्र तो शूद्र, भोलो चाण्डालों एवं म्लेच्छों तकके, जैनधर्मको धारण करके जैन. व्रतोंका पालन करनेके, उदाहरणों और विधानों से जैनग्रंथ भरे पड़े हैं, जिनका कुछ थोड़ा सा परिचय लेखकको 'जैनी कौन हो सकता है' इस नामकी पुस्तकसे भी मिल सकता है । खुद इस प्रथमें भी एक स्थान पर 'व्रतपालनात् शूद्रोऽपि श्रावको ज्ञेयः' जैसे वाक्यके द्वारा व्रतपालन करते हुए शूद्रको श्रावक लिखा है; एक दूसरे स्थान पर श्वपच (चाण्डाल) के श्रावकोत्तम होनेका उल्लेख किया है और तीसरे स्थान पर मातंगादिकने कर्मदहनवतका पालन कर सुख पाया ऐसी सूचना की गई है। क्या एक शूद्र या मातंग (चाण्डाल), कर्मदहनव्रतका अनुष्ठान करता हुआ और इसलिये व्रतविधिक साथ अनुगत भगवानका अभिषेक पूजनादि करता हुआ भी, खुद अपने हाथका भोजन न करके किसी ब्राह्मणादिके हाथका भोजन करता फिरेगा ? कैसी अजीब विडम्बना होगी! प्रथकारको इन सब पूर्वापरसम्बन्धों आदिको कुछ भी ख़बर नहीं पड़ी और उसने यो हो बिना सोचे समझे उन्मत्तोंकी तरह जो जीमें आया लिख मारा !! और साथमें भगवान महावीरको भी घसीट मारा; क्योंकि ये सब वाक्य