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[ १०१ ही क्यों प्राप्त है ?, दूध, दही, गुड़, शक्कर, बूरा, खांड, दाल, चावल, तिल, तेल, गेहूं, चना आदि सालिम अनाज और फल शाकादिकको वह क्यों प्राप्त नहीं है ? यदि प्राप्त है तो फिर दोनों में से किसी भी श्लोकमें उनका उल्लेख क्यों नहीं किया गया ? 'आदि' शब्द तक भी क्यों साथमें नहीं लगाया गया ? और प्राप्त होने पर कोई भी मनुष्य शूद्रको पदवी पाने से वंचित कैसे रह सकता है ? इसी तरह वर्तन मांजने, चौका. चूल्हा करने, पानी भरने, दुग्धादि गर्म करने तथा लाकर देने, आटा छानने और शाकादि ठोक करने जैसे कामोंके लिये घर पर सत् शूद्रकी योजना हानेस ही घरके लोग शद्र कैसे बन जाते हैं ? बड़ा ही अजीब विधान है !!!
क्या ग्रंथकारको दृष्टिमें सारे हो शूद्र असदाचारी तथा मद्यमासादिकके खाने वाले होते हैं और ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्योंमें से कोई भी असदाचारी तथा मद्य-मांस-मधुका सेवन करने वाला नहीं होता है ? यदि ऐसा नहीं, बल्कि प्रत्यक्षम हज़ारों शूद्र बड़े सदाचारी, ईमानदार तथा सफाईके साथ रहने वाले देखे जाते हैं आर उनकी कितनो हो जातियां मद्य-मांसका स्पर्श तक नहीं करतीं; प्रत्युत इसके, लाखों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य दुराचारी पाये जाते है, मद्य मांसादिकका खुला संवन करते है और कितनेही जैनो भो महादुराचारो तथा कुछ मद्य-मांसादिकका सेवन करने वाले भी नज़र आते हैं, तब फिर शूद्रांके विषयमें हो ऐसा नियम क्या ? उनके प्रति यह अन्याय क्यों? और ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्योंके साथ अनुचित पक्षपात क्यों ? क्यों ऐसा नियम नहीं किया गया कि जो लोग दुरावारी तथा मद्य-मांसादिकका सेवन करने वाले हो उनके हाथ का भोजनपान नहीं करना-भले ही वे जैनी क्यों न हो? यदि ऐसा नियम किया जाता तो वह कुछ समुचित एवं