________________
[ १००] लगता है । जो लोग भादोंके महीनेमें तथा व्रतोंमें शूद्रके हाथका जल, घृत और आटा खाते हैं वे शूद्रोंके समान माने गये हैं । व्रतकी ( कर्मदहनवतकी) सिद्धि के लिये शुद्रस्पर्शित जल, घृत और आटा प्रहण नहीं करना चाहिये, जो मूर्ख ग्रहण करते हैं वे शूद्रोंक समान हो माने गये हैं।
एक स्थान पर तो यहां तक भी लिखा है कि जो लोग खानपानादि-सम्बन्धी कामों के लिये-उनको तय्यारोमें सहायता पहुँचाने आदिके लिये*-शूद्रांको अपने घर पर (नाकर) रखते हैं वे श्रावक कैसे हो सकते है ? उन्हे निश्चयस शूद्रोंके समान समझना चाहिये ।' यथाः
शूद्रलोकस्य ये धाम्नि रक्षन्ति ते कथं मताः । खानपानादिकार्थ श्रावकास्तत्समाः खल ॥पृ० ३२॥
मालूम नहीं ये सब विधान कौनसी कमाफलासोफ्नो अथवा धर्मशास्त्रको किस आज्ञास सम्बन्ध रखत हैं ! और न यही कुछ समझम आता है कि मात्र शूद्रक हाथका स्पर्श होने से ही भोजन-पानको कोई सामग्रो निन्द्य (सदोष) क्यांकर हो जातो है ? कैसे सदाचारको विनाशक बन जाती है ? और उसके भक्षणसे मद्य-मांस मधुके भक्षणका दोष (पाप) किस प्रकार लगता है १ कोई मनुष्य महज़ भादो अथवा व्रतके दिनों में शूद्रस्पर्शित जल, घृत और आटके लनसं ही-बिना शूद्रका कर्म किये अथवा शूद्रकी वृत्तिको अपनाये ही-शूद्र कैसे बन जाता है ? शूद्र बना देने की वह विशेषता जल, घृत और आटको
* जैसे वर्तन मांजना, चौकाचूल्हा करना, पानी भरना, दुग्धादि गर्म करना तथा लाकर देना, भाटा छानना और शाकादि ठीक करना जैसे कामों के लिये।