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लक्षकोटिषु शीलाढ्या नारी ह्येका नराधिराट् ! शुद्धशीलधरा नापि भविष्यन्ति न संशयः ॥१०१॥
अर्थात्-पंचमकालमें स्त्रियां शोलरहित तथा मदोद्धत होगी और कालदोषसे अपने पतिको छोड़ कर नौकरसे भोग फरेंगी। हे राजन् ! लाखों करोड़ों स्त्रियों में कोई एक स्त्री शीलवती होगी और शुद्धशीलका पालन करने वालो तो कोई होगी ही नहीं!
इस भविष्यकथनके अनुसार भारतवर्ष में इस वक्त मन. वचन-कायसे प्रसन्नतापूर्वक शुद्ध शीलवतका पालन करने वाली तो कोई स्त्री होनी हो न चाहिये ! जो किसी मजबूरी आदिके कारण कायसे शोलवतका पालन करती हो, उनकी संख्या भी ५० या ज्यादासे ज्यादा १०० के करीब होनी चाहिये-जैनसमाजकी स्त्रो संख्या छह लाखके करीब है, इस लिये उनमें तो कोई एकाध स्त्री हो वैसीशीलवती होनी चाहिये। बाकी सब स्त्रियों को व्यभिचारिणी समझना चाहिये !!
___ यह कथन प्रत्यक्ष के कितना विरुद्ध और विपरीत है, उले बतलानेकी ज़रूरत नहीं-देशकालका थोड़ा सा भी व्यापकशान रखने वाले इसे सहज ही में समझ सकते हैं। हां, इतना ज़रूर कहना होगा कि इसके द्वारा स्त्रियोंकी पवित्रता पर जो व्यर्थका निरर्गल आक्रमण और अविवेकपूर्ण भारो दोषारोपण किया गया है वह स्त्री जातिका घोर अपमान है
और एक ऐसा अपराध है जो क्षमा नहीं किया जा सकता। वास्तवमें भगवान महावीरके बाद से आज तक देशमें हज़ारोंलाखों देवियां पूर्णरूपसे पतिव्रत धर्मका पालन करने वाली परम सुशीला, पतिपरायणा और देशकी गौरवरूपिणी हो चुकी हैं। उनकी यह अवश किसी तरह भी सहन नहीं की जा