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[ ९६ ] आस्रवका कारण "कषायोदयात् तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य" इस सूत्रके अनुसार कषायके उदयसे तीव्रपरिणामका होना कहा गया है न कि किसी म्लेच्छको सन्तान होना । म्लेच्छ को सन्ताने तो अपने उसी जन्ममें व्रतोका पालन कर सकती हैं और महाव्रती मुनि तक हो सकती हैं, जिसके अनेक उदाहरण तथा विधान जैनशास्त्रोंमें पाये जाते हैं*, तब उनके लिये अगले जन्ममें लाज़िमी तौरसे व्रतहीन होनेको कोई वजह ही नहीं हो सकती।
इसके सिवाय, इसी ग्रंथमें एक स्थान पर लिखा है कि जैनधर्मको धारण करता हुआ श्वपच (म्लेच्छ-विशेष भी) 'श्रावकोत्तम' माना गया है, कुत्ता भी व्रतके योगसे देवता हो जाता है और एक कीड़ा भी लेशमात्र व्रतके प्रसादसे उत्तम गतिको प्राप्त होता है। तथा दूसरे स्थान पर लिखा है कि
* देखो, हरिवंशपुराणादि ग्रन्थ, जिनमे अनेक भीलों, चाण्डालों, म्लेच्छोंके व्रत पालनादिका उल्लेख है। 'जरा' नामकी म्लेच्छ कन्याले उत्पन्न हुए 'जरत्कुमार' ने भी अन्तको मुनिदीक्षा ली थी. जिसका उल्लेख भी जिनमेनके हरिवंशपुराणमे है । इसके सिवाय, लब्धिसारकी टीकाके निम्न अशसे साफ़ प्रकट है कि म्लेच्छ देशोंसे आये हुए म्लेच्छ तथा म्लेच्छ कन्याओंसे चक्रवादिकके वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा उत्पन्न पुत्र जैनमुनिदीक्षाके अधिकारी हैं:-"म्लेक्षभूमिजमनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं कथ भवतीति नाशंकितव्य। दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागताना म्लेच्छराजानां चकवादिभिः सहजातवैवाहिकसम्बन्धानां सयमप्रतिपत्तरविरोधात् । अथवा चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाजः संयमसंभवात् तथाजातीयकानां दीक्षाईत्वे प्रतिषेधाभावात् ।" (गाथा नं. १९३)