________________
[ ९४ ] इसी तरहका एक अत्यन्त संकीर्ण हृदयोद्गार ग्रंथकार ने और भी निकाला है और वह इस प्रकार है
पश्यन्ति नैव ये मूढाः जिनबिम्बं जगन्नतम् । कदापि तन्मुखो नैव दर्शनीयो बधोत्तमैः ॥पृ० १६१॥
इसमें बतलाया गया है कि 'जो लोग जिनयिम्बका दर्शन नहीं करते हैं उन मूढोका कदापि मंह नहीं देखना चाहिये!'
इस व्यवस्थाके अनुसार देशकी प्रायः सारी महाविभू. तियाँ-पूज्यव्यक्तियाँ-भी जैनियोंके लिये, नहीं नहीं इस प्रन्थके मानने वालों के लिये, अदर्शनीय हो जातो हैं ! उन्हें देशके दूसरे पूज्य नेताओं, राजाओं, हाकिमोंसे नहीं मिलना चाहिये! अन्य व्यापारियों, सेवकों तथा शिल्पकारोंसे भी बात नहीं करनी चाहिये !! और रास्ता चलते हुए आँखें बन्द करके अथवा अपने मुंह पर पल्ला डाल कर चलना चाहिये, क्योकि चारों तरफ ऐसे ही लोग भरे पड़े हैं जो जिनबिम्बका दर्शन नहीं करते-कहीं उनका मुख न दिखलाई पड़ जाय !!! कैसी अद्भुत व्यवस्था और कैसी हृदयहीनता है !! इस व्यवस्था पर दृढताके साथ अमल करने (चलने) वाले क्या संसारमें कुछ अधिक समय तक जीवित रह सकते हैं या अपनी कुछ उन्नति कर सकते हैं ? कदापि नहीं। फिर उनके द्वारा अपने धर्मका प्रचार अथवा लोगोंको जिनबिम्बके दर्शनकी ओर लगानेका कार्य तो बन ही कैसे सकता है ? निःसन्देह, इस प्रकारको शिक्षाओंने जैनसमाजको बहुत बड़ी हानि पहुँचाई है और जैनियोंको पतनके खुले मार्ग पर लगाया है !! अन्यथा, हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों आदिने तो पतितसे पतित मनुष्यों, भोलचाण्डालों और म्लेच्छों तकको, उनकी बाँह पकड़ कर, सन्मार्ग