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पर लगाया है। वे यदि उनका मुँह ही न देखते तो उनका उद्धार कैसे कर पाते ? परन्तु खेद है कि आज आचार्य कहे जाने वाले शान्तिसागरजी और उनके गणधर क्षुल्लक शानसागरजी ऐसी विषैली शिक्षाओसे परिपूर्ण प्रन्थका भी अनमोदन तथा प्रचार करते हैं और जैनसमाज उनसे कुछभी जवाबतलब नहीं करता-उन्हें बराबर आचार्य तथा क्षुल्लक मानता चला जाता है ! इससे अधिक जैनसमाजका पतन और क्या हो सकता है?
६ कर्मसिद्धान्तकी नई ईजाद !
भगवानसे राजा श्रेणिकके कुछ प्रश्नोंका उत्तर दिलाते हुए, एक स्थान पर लिखा है कि 'म्लेच्छोंसे उत्पन्न हुए स्त्री-पुरुष मरकर व्रतहीन मनुष्य ( स्त्री-पुरुष ) होते हैं।' यथा:
म्लेच्छोत्पन्ना नरा नार्यः मृत्वा हि मगधेश्वर ! भवन्ति व्रतहीनाश्च इमे वामाश्च मानवाः ॥पृ० ३७७॥
इस विधानके द्वारा प्रन्थकारने कर्मसिद्धान्तको एक बिलकुल ही नई ईजाद कर डाली है ! क्योंकि जैनधर्मके कर्मसिदान्तानुसार म्लेच्छ सन्तानोंके लिये न तो मनुष्यगतिमें जानेका हो कोई नियम है, जिसे सूचित करने के लिये ही यहाँ 'मानवाः' पदका खास तौरसे प्रयोग किया गया है-वे दूसरी गतियों में भी जा सकते हैं और जाते हैं और न अगले जन्ममें व्रतहीन होना ही उनके लिये लाज़िमी है। व्रतहीन होनेके लिये चारित्रमोहनीयका एक भेद अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदय कारण माना गया है और चारित्र-मोहनीयके