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[ ८९ ] और पंचाध्यायो जैसे ग्रंथोंको हो देखा है उन्हें यह बतलानेकी ज़रूरत नहीं कि यह लक्षण कितना विचित्र और विलक्षण है। वे सहज ही में समझ सकते हैं कि इसमें समीचीन लक्षणके अंगरूप न तो तत्वार्थश्रद्धानका कोई उल्लेख है, न परमार्थ आप्त-आगम-गुरुके त्रिमूढतादिरहित और अष्टअंगसहित श्रद्धानका ही कहीं दर्शन है, न म्वानुभूतिका कुछ पता है, और न प्रशमसंवेगादि गुणोंका हो कोई चिन्ह दिखाई पड़ता है ! सच पूछिये तो यह लक्षण बड़ाही रहस्यमय है, जाली सिक्कोंको चलानेकी मनोवृत्ति हो इसकी तहमें काम करती हुई नज़र आती है, और इसलिए इसे भट्टारकीय शासनके प्रचारका मूलमंत्र समझना चाहिये। इसी पर्देको ओटमें भट्टारक लोग और उनके अनुयायोजन सब कुछ करना चाहते हैं। प्राचीन ग्रन्थों में अपनी इष्टसिद्धि के लिये चाहे जो कुछ मिला दिया जाय और चाहे जिन बातोंको चलानेके लिये प्राचीन ऋषियों अथवा तीर्थंकरोंके नाम पर नये प्रन्थोंका निर्माण कर दिया जाय; परन्तु उसमें कोई भी 'चरा' अथवा आपत्ति न करेबिना परीक्षा और बिना तत्वको जांच किये ही सब लोग उन बातोंको आगमकथितके रूप में आंख मोचकर मान ले, इसी मन्तव्यकी रक्षाके लिये बिना किसी विशेषणके सामान्यरूपसे प्रन्थकार, प्रन्थ और वाक्य शब्दोंका प्रयोग करके सम्यग्दर्शन अथवा सम्यग्दृष्टिके लक्षणका यह विचित्र कोट तय्यार किया गया है !! अन्यथा इसमें कुछ भी सार नहीं है। प्रन्थकारोंमें अच्छे बुरे, योग्य अयोग्य सभी प्रकारके ग्रंथकार होते हैंउनमें आचार्य, भट्टारक, गृहस्थ और प्रस्तुत ग्रंथकार तथा त्रिवर्णाचारोंके कर्ताओं जैसे धूर्तभी शामिल हैं-और ग्रंथोंमें मो अनेक कारणोंके वश सच्ची झूठी सभी प्रकारको बातें लिखी जा सकती हैं और लिखी गई हैं। फिर बिना परीक्षा और सत्य